बिहार मे संगठित किसान आंदोलन के नेता सहजानन्द सरस्वती

बिहार मे संगठित किसान आंदोलन के नेता सहजानन्द सरस्वती का आज जन्म दिन है। आज जब उनके नाम पर तरह तरह की राजनीति हो रही है, सहजानन्द के विचारों के क्रमविकास पर रामजी राय द्वारा कुछ दिन पहले फ़ेसबुक पर लिखा यह पोस्ट साझा किया जा रहा है।

“ग्रामीण सर्वहारा अपने अधिकारों, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के बारे में वाकिफ होने लगा है जब इसकी वाकिफियत पूरी हो जाएगी तो विनाश का तांडव नृत्य शुरू होगा और वर्तमान अन्यायपूर्ण भूमि व्यवस्था लड़खड़ाने लगेगी।” – स्वामी सहजानंद सरस्वती

सहजानंद सरस्वती के विचारों का क्रमविकास बिहार और खासकर भोजपुर के किसान संघर्ष की बदलती धारा और किसान सभा के क्रांतिकारीकरण की प्रक्रिया की सुंदर झांकी प्रस्तुत करता है। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के रहनेवाले सहजानंद सरस्वती उर्फ नवरंग राय प्रारंभ में भूमिहार महासभा में शामिल हुए थे और इसके पीछे उनका लक्ष्य था ब्राह्मण का दर्जा पाने के लिए भूमिहारों के दावे को मजबूत करना। लेकिन वे इतने से संतुष्ट न हुए और जल्द ही भूमिहार जाति के युवा पीढ़ी को बड़े पैमाने पर असहयोग आंदोलन में भाग लेने को उत्प्रेरित करने लगे। 1925-26 आते-आते यह महासभा नरमपंथी, जिसका नेतृत्व सर गणेश दत्त कर रहे थे, जो एक बड़े जमींदार और अंग्रेजों के जीहुजूरिए थे, और गरमपंथी, जिसके नेता सहजानंद थे, इन दो गुटों में विभाजित हो गई। शीघ्र ही पटना के निकट बिहटा में स्थित सहजानंद का आश्रम किसान आंदोलन का केंद्र बिंदु बन गया, जो न केवल भूमिहार जाति को, बल्कि अन्य जातियों के पट्टेदारों को भी आकर्षित कर रहा था। अब ध्नी भूमिहारों ने उन्हें चंदा देना बंद कर दिया और सहजानंद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि

“जातीय सभाएं तथा ध्रर्म के नाम पर दिए दान के जरिए धनिक लोग इन सभाओं को अपने हाथ का खिलौना बनाकर रखना चाहते हैं और अपनी जमींदारी, अपना व्यापार और अपना प्रभुत्व दृढ़ कर लेते हैं, न कि परलोक या उपकार के लिए कुछ भी करते हैं।”

स्वामी सहजानंद के अपने खुद के शब्दों में यह भी कम रोचक तथ्य नहीं है कि

“किसान सभा बनाने के पीछे मेरा उद्देश्य केवल प्रचार और आंदोलन के जरिए किसानों के दुख दूर करना था और इसके जरिए किसानों और जमींदारों के बीच झगड़े खत्म कर देना था। क्योंकि ये झगड़े भड़क सकते थे और इनसे आजादी की लड़ाई में सभी लोगों की एकता टूटेगी। इसलिए किसान सभा का संगठन बनाते समय मैं पूरा समझौतावादी था।”

“1941 आते-आते किसान सभा उन शोषित और सताए हुए लोगों की है जिनका भाग्य खेती पर निर्भर करता है, यानी जो खेती पर ही जिंदा रहते हैं। जो लोग जितने ज्यादा सताए हुए हैं, वे किसान सभा के उतने ज्यादा नजदीक हैं और किसान सभा भी उतना ही उनके करीब है।”

और 1944 में

“वे लोग (मझोले और बड़े काश्तकार) अपने फायदे में कुछ हासिल कर लेने के लिए किसान सभा का इस्तेमाल कर रहे हैं और हमलोग भी सभा को मजबूत करने के लिए उनका इस्तेमाल कर रहे हैं या पिफर करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा तब तक चलेगा जब तक निचले तबके के किसान अपने सही आर्थिक और राजनीतिक हितों को नहीं समझ जाते और अपनी जरूरतों को समझ कर अपने वर्ग की चेतना नहीं हासिल कर लेते। ऐसे उधर सर्वहारा या खेत मजदूर जिनके पास कोई जमीन नहीं है या नाम मात्र को जमीन है, ऐसे छोटे काश्तकार जो खेती करके किसी तरह जिंदा रह पाते हैं और कुछ भी नहीं बचा पाते, वे ही हमारे ख्याल से किसान हैं और आखिरकार उन्हीं को किसान सभा बनानी है और वे जरूर किसान सभा में आएंगे।”

आगे चलकर स्वामी सहजानंद ने अखिल भारतीय संयुक्त किसान सभा नामक अलग संगठन बना लिया, जिसकी बुनियादी मांग थीः “भूमि और जल मार्गों तथा ऊर्जा और संपदा के सारे स्रोतों का राष्ट्रीयकरण और जिसकी फौरी मांग थी : जिनके पास विशाल भूसंपत्ति है उनकी भूमि का अधिग्रहण कर लिया जाए तथा इसे उनलोगों के बीच उचित ढंग से बांट दिया जाए जो भूमिहीन हैं अथवा बहुत छोटे प्लाटों के मालिक हैं।”

और अंततः

“ग्रामीण सर्वहारा अपने अधिकारों, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के बारे में वाकिफ होने लगा है जब इसकी वाकिफियत पूरी हो जाएगी तो विनाश का तांडव नृत्य शुरू होगा और वर्तमान अन्यायपूर्ण भूमि व्यवस्था लड़खड़ाने लगेगी।”

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