उत्तराखंड : हाई कोर्ट में राजनीति

uttarakhand_highcourtउत्तराखंड की राजनीति में पिछले 10-12 दिन से जारी उथल-पुथल में नित नए दृश्य उपस्थित हो रहे हैं. यह सत्ता संघर्ष विधानसभा से निकल कर राजभवन, राष्ट्रपति भवन होता हुआ उच्च न्यायालय, नैनीताल पहुँच गया है. उच्च न्यायालय में भी 29 और 30 मार्च को एकल पीठ और मुख्य न्यायाधीश वाली दो न्यायाधीशों की पीठ में सत्ता से बाहर कर दिए गए निवर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत और विपक्षी भाजपा ने जिस तरह के दांव-पेंच दिखाए, वे अजब-गजब हैं. हाई कोर्ट में दो दिन दो अलग-अलग पीठों के फैसले और उससे पहले हुए घटनाक्रम से यह साफ़ है की भले ही इस प्रकरण से जुड़े सभी पक्ष विधानसभा में विशवास-अविश्वास मत पर जोर आजमाईश में खुद के बलशाली होने का दावा कर रहे हों, लेकिन वास्तविकता यह है कि सदन परीक्षण यानि फ्लोर टेस्ट का सामना करने को कोई तैयार नहीं है.

केंद्र में सत्तासीन और उत्तराखंड में अब तक विपक्ष में रही भाजपा तो पहले ही सदन में संख्या बल की आजमाईश से किनारा करते हुए नजर आ चुकी थी. वरना राज्यपाल द्वारा हरीश रावत को बहुमत सिद्ध करने के लिए दिए गए समय से ठीक एक दिन पहले 27 मार्च को राज्य में केंद्र सरकार राष्ट्रपति शासन नहीं लगाती. लेकिन सबसे चौंकाने वाला रुख तो सत्ता से बेदखल हुए हरीश रावत का है. हरीश रावत बार-बार यह दावा करते रहे कि वे विधानसभा में बहुमत साबित कर देंगे. 29 मार्च को जब नैनीताल उच्च न्यायालय में उनके द्वारा दाखिल याचिका पर न्यायामूर्ति यू. सी. ध्यानी की एकल पीठ ने विधानसभा में शक्ति परीक्षण का आदेश दिया तो इसे हरीश रावत और उनके वकीलों ने इसे अपनी जीत करार दिया. 30 मार्च को इस फैसले को भारत सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय के  मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ और न्यायमूर्ति वी. के. बिष्ट की खंडपीठ के समक्ष चुनौती दी. आश्चर्यजनक रूप से अभिषेक मनु सिंघवी के नेतृत्व में हरीश रावत की तरफ से खड़ी वकीलों की टीम ने भी न्यायमूर्ति यू. सी. ध्यानी के विधानसभा में शक्ति परीक्षण का आदेश देने वाले फैसले को स्थगित करने पर सहमति प्रकट की. यह वही फैसला है जिसे एक दिन पहले ही  निवर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत और उनके अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने भी न्याय और लोकतंत्र की जीत बताया था. हरीश रावत ने उस समय फिर एक बार दावा ठोका था कि वे विधानसभा में बहुमत सिद्ध कर देंगे.

फिर चौबीस घंटे बीतते-न-बीतते ऐसा क्या हुआ कि हरीश रावत जिस फैसले को अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर रहे थे, उनके वकील उसी फैसले को स्थगित करवाने के लिए सहमत हो गए ?

यह समझने के लिए 29 मार्च को दिए गए नयायमूर्ति यू. सी. ध्यानी के फैसले पर निगाह डालते हैं. इस फैसले में न्यायमूर्ति यू. सी. ध्यानी ने लिखा कि चूँकि विधानसभा अस्तित्व में हैं और अध्यक्ष भी अभी अपने पद पर हैं, इसलिए 31 मार्च को विधानसभा में शक्ति परीक्षण हो. साथ ही उन्होंने कहा कि 9 बागी हो चुके विधायकों समेत सभी को शक्ति परीक्षण में वोट देने का अधिकार होगा. हालांकि 9 बागी विधायकों का वोट अलग से गिनने का निर्देश भी उक्त फैसले में हैं. फैसले में राष्ट्रपति शासन लगाये जाने पर स्थगनादेश तो नहीं दिया गया, लेकिन उसपर कई सवाल उठाये गए हैं. इस मामले में अदालत के हस्तक्षेप को न्यायोचित ठहराते हुए राजस्थान राज्य बनाम भारत सरकार, 1997 में उच्चतम न्यायलय के फैसले का हवाला देते हुए कहा गया है कि “अदालतें हस्तक्षेप कर सकती हैं यदि वे इस बात से संतुष्ट हों कि फैसला दुराग्रहपूर्ण मंशा या असंगत अथवा अप्रासंगिक आधारों पर लिया गया हो”. यह राष्ट्रपति शासन लगाए जाने पर मुकम्मल टिप्पणी है. राष्ट्रपति शासन के मामले में नजीर माने जाने वाले उच्चतम न्यायालय के एस. आर. बोम्मई बनाम भारत सरकार, 1994 के फैसले के पैरा संख्या 118 और 119 का हवाला भी न्यायमूर्ति यू. सी. ध्यानी ने अपने फैसले में दिया. एस. आर. बोम्मई के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि “इस मामले में जहाँ कुछ विधायकों ने मंत्रिमंडल से समर्थन वापस लेने का दावा किया है, मंत्रिमंडल की शक्ति का परीक्षण केवल सदन के पटल पर ही हो सकता है मंत्रिमंडल की शक्ति का अंदाजा किसी व्यक्ति चाहे वह राज्यपाल या राष्ट्रपति ही क्यूँ न हो, के निजी आकलन के आधार पर नहीं हो सकता है.”

हालांकि इस फैसले पर सवाल खड़े करने वालों का तर्क था कि सरकार जब अस्तित्व में है ही नहीं तो सदन परीक्षण किसका होगा? न्यायमूर्ति यू. सी. ध्यानी के फैसले से तो यह ध्वनित होता है कि सदन परीक्षण का आदेश गडबड नहीं है बल्कि गलती राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के तरीके से ही शुरू हो गयी थी. वे अपने फैसले में लिखते हैं कि राज्यपाल ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 175 के अंतर्गत प्राप्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए मुख्यमंत्री को विश्वास मत हासिल करने का निर्देश दिया. राज्यपाल ने अभी तक धारा 175 के तहत दिया उक्त निर्देश वापस नहीं लिया है. जस्टिस ध्यानी प्रश्न करते हैं कि राज्यपाल द्वारा सदन में विश्वास मत हासिल करने के निर्देशों को ‘शार्ट सर्किट’ करते हुए क्या धारा 356 को लागू किया जा सकता है?

उक्त सभी टिप्पणियों को देखें तो साफ़ है कि राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के तौर-तरीके पर गंभीर सवाल खड़े किये गए हैं. इस तरह देखें तो हरीश रावत और कांग्रेस इसे अपने पक्ष में दिया गया फैसला मान सकते थे. उन्होंने ऐसा दावा किया भी. पर उपरी बेंच में वे इस फैसले को स्थगित करने पर क्यूँ सहमत हुए? दरअसल इसी फैसले में जो 9 बागी विधायक हैं, उन्हें भी विधानसभा की कार्यवाही में विश्वास मत के दौरान शामिल होने का अधिकार दिया गया है और उनके मत को अलग से गिने जाने का निर्देश भी दिया गया है. हालांकि फैसले में दल बदल पर काफी विस्तृत टिप्पणी है और इसी लोकतंत्र के आधारभूत तंतु को नष्ट करने वाला बताया गया है. फैसले में कहा गया है कि अगर विधायक इस तरह से वोट करेंगे कि वे अयोग्य साबित हो जाएँ तो वैधानिक परिणाम भुगतने के लिए उन्हें तैयार रहना चाहिए. लेकिन साथ ही कहा गया कि वह अवस्था अभी आई नहीं है. हालांकि बागी विधायकों के वकीलों ने स्वयं अदालत में कहा कि 356 लागू होने के चलते सदन की कार्यवाही नहीं चल सकती.

इस तरह देखें तो बागी विधायक, जिन्हें उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने वोट देने और विधानसभा की कार्यवाही में शामिल होने का अधिकार दिया, वे स्वयं सदन में शक्ति परीक्षण के विरुद्ध तर्क दे रहे थे. केंद्र सरकार की तरफ से खड़े वकील ने कहा कि वास्तविक रूप से अभी राष्ट्रपति शासन लागू ही नहीं हुआ है. वह तो संसद के अनुमोदन के बाद लागू होगा, इसलिए अभी कोई राहत नहीं दी जानी चाहिए. एक तरह से विधानसभा में शक्ति परीक्षण का उन्होंने विरोध ही किया. और जैसा कि पहले इंगित किया जा चुका कि विधानसभा में मत परीक्षण पर जोर देने वाले उच्च न्यायालय की एकल पीठ के इस फैसले को स्थगित किये जाने पर स्वयं हरीश रावत ने डबल बेंच में सहमति प्रकट की. यानि विधानसभा में शक्तिपरीक्षण से हरीश रावत खुद भी मुंह चुरा रहे हैं.

यह बड़ी विचित्र बात है कि जो हरीश रावत बहुमत का दावा कर रहे हैं और बागी व भाजपा जो हरीश रावत के अल्पमत में होने का दावा कर रहे हैं, उनमे से कोई भी विधानसभा के भीतर अपने बात सिद्ध करने को राजी नहीं है. यह दरअसल उत्तराखंड में चल रही सिद्धान्हीन राजनीति की अवस्था को ही पुनः उजागर करता है. इस राजनीतिक नाटक की शरुआत होते ही बागी विधायक भाजपा के विमान में सवार हो कर राज्य से बाहर चले गए. भाजपा ने अपने विधायकों को जयपुर पहुंचा दिया. कांग्रेस के विधायक कार्बेट पार्क के रिजार्टो में कैद हो गए. ये सम्मानित जनप्रतिनिधि हैं.लेकिन यह एक जगह गाय-बकरियों की तरह घेर कर रखा जाना दर्शाता  है कि माननीयों के बारे में उनके अपने दलों/खेमों में क्या मान्यता है? मान्यता यह है कि कोई भी “माननीय” अकेला छोड़ा गया तो वह न जाने कब दूसरे के हाथों बिक जाए. इसे हॉर्स ट्रेडिंग कहा जाता है पर घोड़े बेचारे को खुद बिकने का सौभाग्य कहाँ प्राप्त है? जिनके बारे में उनके दल/खेमें यह भरोसा करने को तैयार न हों कि वे अकेले में बिकेंगे नहीं, वे यदि माननीय हैं तो फिर अवमाननीय कैसे होते हैं? बहरहाल माननीयों के इस बिकाऊ अवस्था को प्राप्त होने के चलते ही तीनों खेमों यानी कांग्रेस, भाजपा और बागियों को विधानसभा में मत परीक्षण से भागना ही सबसे सही कदम लग रहा है. धुर विरोधी होते हुए भी इस मामले में तीनों में एका है. उच्च न्यायालय भी वे राहत पाने नहीं राजनीतिक दांव-पेंच आजमाने ही गए हुए हैं. इस मामले में अगली सुनवाई 6 अप्रैल को निर्धारित है.

पर प्रश्न यह भी है कि जब माननीय अपने दल/खेमों वालों पर तक भरोसा नहीं कर पा रहे हों तो फिर जनता को ही उनपर भरोसा क्यूँ करना चाहिए ?

 

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