जमीन का सवाल माले की राजनीति का शुरूआती और केंद्रीय सवाल रहा है

भूमि अधिग्रहण के सवाल पर अन्ना के आन्दोलन का किसी वामपंथी दल द्वारा समर्थन से जो उन्मादग्रस्त होकर अल्लम-बल्लम बक रहे है, वे कौन है? संघी-भाजपाइयों के अलावा उनकी ही भाषा में बोलने वाले ये कौन लोग हैं? अन्ना के मंच पर किसी का जाना यह कैसे साबित करता है कि उसका अपना कोई मंच नहीं है या उसकी पार्टी भूमि अधिग्रहण के सवाल पर कुछ नहीं कर रही है.

तो वामपंथ विरोधियों से यह कहना है कि अन्ना के इस मूवमेंट के पहले से वामपंथी किसानों को लामबंद करने में लगे हुए हैं, एक दम जमीनी स्तर पर. रहा भूमि अधिग्रहण के विरोध का सवाल, तो इस सवाल पर कोई वामपंथी अन्ना के आन्दोलन का समर्थन न करेगा तो क्या संघी गिरोहों द्वारा प्रायोजित तरह तरह के उन्माद का समर्थन करेगा या फेसबुक पर कुंठा उगलने वालों से जिरह करेगा. पहले तथ्य जान लिया करें. खाली जो टीवी पर नजर आता है उसी पर पूर्वाग्रह-दुराग्रह की ‘सुगंध’ न फैलाएं. जहाँ तक सीपीआई एमएल पर निशाना साधने वाले कुछ लोगों की बात है, तो उन्हें यह सनद रहे कि उनकी खुद की अपनी अस्मितावादी राजनीतिक परिणतियां क्या हैं। अगर आप वास्तविकता और तथ्यात्मकता में जरा भी यकीन रखते तो यह सरलता से ज्ञात हो जाता कि जब अन्ना को कोई खास लोकप्रियता नहीं मिली थी उसके बहुत पहले से माले आंदोलनरत रही है और हमारे प्यारे कामरेडों ने अनेक मोर्चे पर अपनी शहादत दी है।

जमींन का सवाल हमारी राजनीति का शुरूआती और केंद्रीय सवाल रहा है। 16 मई के बाद फासीवाद के बड़े उभार के बाद भी दलित राजनीति — BSP टाइप राजनीति की आतंरिक विसंगतियों का समुचित आत्मालोचना का अभाव और उसके पहले भी समय-समय पर त्रिशूल दीक्षा में दीक्षित होने के परिणाम से कुछ न सीखना जड़ता का बोधक है तथा झूठ पर आधारित संघी दुस्प्रचार शैली को अपना लेना फासीवादी शक्तियों के पक्ष में मिल जाने का प्रमाण है। और अभी इस समय संसद में जब सभी पार्टियां एक सुर से इस भूमि अधिग्रहण संबंधी बीजेपी की नीति का विरोध कर रही हैं तब इस विरोध के विपक्ष में खड़े होने की मंशा खतरनाक और संदेहास्पद है।

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