जनता के संसाधनों की खुली लूट है डीडा नैनीसार की घटना

अल्मोड़ा जिले के द्वारसों स्थित डीडा पंचायत के तोक नैनीसार की 353 नाली (7 हैक्टेयर से ज्यादा) भूमि को राज्य सरकार ने गुपचुप तरीके से देश के नामी औद्योगिक समूह जिंदल की “हिमांशु एजुकेशन सोसाइटी” को दे दिया है। प्राप्त जानकारी के अनुसार 21 अप्रैल 2015 को इस जमीन को शिक्षण संस्थान के लिए उपलब्ध कराने के लिए जिंदल समूह की हिमांशु एजुकेशन सोसाइटी ने मुख्यमंत्री को पत्र भेजा। 22 सितम्बर 2015 को सरकार ने गुपचुप तरीके से इस जमीन को जिंदल समूह को देने का शासनादेश कर दिया। इसके बाद जमीन का नियमतः पट्टा जारी होने से पूर्व ही 25 सितम्बर 2015 से जिंदल समूह ने इस जमीन पर काम शुरू कर दिया। जब गाँव की इस जमीन पर बुलडोजर चलने लगा और गाँव की वन पंचायत के लीसा लगे चीड़ के पेड़ व बांज के हरे पेड़ काटे जाने लगे तब गाँव के किसानों को सरकार द्वारा यह जमीन जिंदल समूह को दिए जाने का पता चला। इसके बाद किसानों ने इसका विरोध किया और जिले के आला अधिकारियों और सरकार से इसे रोकने की मांग की। मगर किसानों की मांग व विरोध को अनसुना कर राज्य के मुख्यमंत्री हरीश रावत खुद 22 अक्टूबर को इस जमीन पर जिंदल समूह द्वारा आयोजित उदघाटन कार्यक्रम में उदघाटन करने पहुच गए। कार्यक्रम का विरोध कर रहे किसानों को समर्थन देने जा रहे उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पी सी तिवारी, सामाजिक कार्यकर्ता ईश्वर जोशी, जीवन चन्द्र सहित 8 लोगों को पुलिस ने रास्ते में ही हिरासत में ले लिया। मौके पर कई दिनों से लगातार धरने पर बैठे किसानों पर लाठीचार्ज कर उन्हें हिरासत में लेकर दिन भर गाड़ियों में जंगल में घुमाया जाता रहा ताकि मुख्यमंत्री योजना का उदघाटन कर सकें। आश्चर्य की बात है कि मुख्यमंत्री द्वारा उदघाटन किये जाने के समय तक भी नियमतः जमीन का पट्टा जिन्दल समूह के नाम नहीं हुआ था।

नैनीसार गांव की गौचर – पनघट और वन पंचायत की इस जमीन को गाँव की जनता की राय लिए बिना जिंदल समूह को देने की इस कार्यवाही ने राज्य में जमीन से सम्बंधित कानूनों के सवाल को उत्तराखंड की राजनीति के केंद्र में ला दिया है। जिंदल समूह को यह भूमि उपलब्ध कराने में राज्य सरकार ने जो फुर्ती दिखाई तथा भूमि का विधिवत पट्टा जारी होने से पूर्व ही जमीन पर कार्य प्रारंभ कराकर खुद मुख्यमंत्री का उदघाटन कार्यक्रम में शामिल होना कई सवाल खड़े करता है। राज्य के विकास और पहाड़ में रोजगार उपलब्ध कराने के नाम पर जनता की परम्परागत आजीविका के बुनियादी संसाधनों की यह लूट राज्य बनने के बाद बड़ी तेजी से बढी है। इसमें राज्य में अब तक सत्ता में रही कांग्रेस – भाजपा दोनों सरकारों की बराबर की भूमिका रही है। राज्य की भूमि लूट में राज्य सरकारों की भूमिका का इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य बने 15 वर्षों में अब तक जमीन के सवाल पर लगभग एक दर्जन शासनादेश आ चुके हैं। भूमि संबंधी शासनादेश लाने में कांग्रेस – भाजपा किसी भी सरकार ने कोई कमी नहीं की। आज पहाड़ से लेकर मैदान तक गरीब किसानों के हाथ से जमीनें छिनती जा रही हैं। राज्य सरकार जानबूझ कर ऐसा वातावरण बनाने पर तुली है जिससे किसानों का खेती – किसानी से मोह भंग हो और वे पलायन को मजबूर हों। इसी का नतीजा है कि राज्य बनने के बाद पहाड़ के गांवों से पलायन की रफ़्तार तेज हुई है और इन 15 वर्षों में लगभग 15 लाख लोगों को पहाड़ से पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा है। आखिर वो कौन सी स्थितियां हैं जो पहाड़ के किसानों को खेती छोड़ने व पलायन के लिए मजबूर कर रही हैं ? क्या राज्य सरकार की डीडा नैनीसार जैसी योजनाएं सचमुच पहाड़ में रोजगार बढाने व पलायन रोकने में कामयाब होंगी ?

चलिए ! अब डीडा नैनीसार गाँव की इस घटना के बहाने उत्तराखंड में जमीनों और उससे सम्बंधित कानूनों की एक पड़ताल कर लें। डीडा नैनीसार की जिस जमीन को राज्य सरकार ने जिंदल समूह को दिया है उसे पहाड़ में बेनाप – बंजर जमीन या संजायती जमीन भी कहते हैं। इस जमीन को पहाड़ में गौचर – पनघट और अपने उपयोग के लघु वन उत्पाद के लिए परम्परागत रूप से गाँव के किसान इस्तेमाल करते हैं। सन् 1911 के वन बंदोबस्त व 1927 में आये वन कानून के बाद सरकारी वनों से जनता के परम्परागत अधिकार छिनने लगे। इस पर किसानों के भारी विरोध के बाद सन् 1931 में अंग्रेज पहाड़ के लिए वन पंचायत नियमावली लाए। चूंकि पहाड़ की कृषि व पशुपालन पर आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था वनों से अभिन्न रूप से जुडी है, अतः इसके आधार पर पहाड़ के किसानों को अपने उपयोग के लिए वन पंचायतें गठित कर खुद के वन विकसित करने का अधिकार मिला। किसानों की ये वन पंचायतें भी ज्यादातर इसी बेनाप – बंजर भूमि पर बनी हैं। यह जमीन किसानों की अपने खाते की जमीन और वन विभाग की जमीन के बीच की श्रेणी की जमीन है। यह जमीन पूरे देश में ग्राम समाज की भूमि कहलाती है और ग्राम पंचायतों के नाम दर्ज है। अन्य राज्यों व उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रों की ग्राम पंचायतों को इस भूमि के प्रवंध व वितरण का अधिकार मिला है। जिसके आधार पर ग्राम पंचायतें इस भूमि से विकास योजनाओं के लिए, भूमिहीनों को खेती के लिए तथा आवासहीनों को आवास के लिए भूमि आवंटित करती है। इसके लिए ग्राम पंचायतों में एक भूमि प्रवंध कमेटी भी बनी होती है। परन्तु उतराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में इस जमीन को राज्य सरकार के नाम पर दर्ज किया गया गया है। सन् 1957 से लागू “उत्तर प्रदेश जमींदारी विनास एवं भूमि सुधार कानून” की धारा 128 के तहत ग्राम पंचायतों को मिले इस भूमि के प्रवंध व वितरण के अधिकार से पहाड़ की ग्राम पंचायतों को वंचित किया गया। इसके लिए सन् 1960 में पहाड़ के जिलों के लिए अलग से “कुमाऊँ उत्तराखंड जमींदारी विनास एवं भूमि सुधार कानून” ( कूजा एक्ट ) लाया गया। इसके बाद से तत्कालीन उत्तर प्रदेश और अब उत्तराखंड की सरकारें “कूजा एक्ट” व “यू पी जेड ए एक्ट” दोनों को अपनी सुविधा के अनुसार राज्य में लागू किए है।

सन् 1997 से तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने पहाड़ की इस बेनाप – बंजर भूमि को अंग्रेजों द्वारा सन् 1993 में जारी एक शासनादेश का हवाला देकर “रक्षित वन भूमि” की श्रेणी में डाल दिया था। जबकि बाद के दौर में खुद अंग्रेज इस शासनादेश को हटा चुके थे। हम लोग राज्य बनने के बाद से ही इस भूमि को “रक्षित वन भूमि” की श्रेणी से बाहर कर ग्राम पंचायतों को सौंपने व ग्राम पंचायतों को इसके प्रवंध व वितरण का अधिकार देने की मांग करते रहे। अपने दूसरे कार्यकाल में मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूरी ने जब पहाड़ के लिए नई औद्योगिक नीति बनाई तो उनकी नजर इस भूमि पर पड़ी। उन्होंने उद्योगपतियों को यह भूमि उपलब्ध कराने के लिए 1893 के शासनादेश को रद्द कर इस भूमि को “रक्षित वन भूमि” की श्रेणी से बाहर कर दिया। हमने खंडूरी सरकार से इस भूमि को तत्काल ग्राम पंचायतों के नाम दर्ज कराने की मांग की थी। ऐसा न होने पर हमने सरकार द्वारा देहरादून से ही गांवों की इस जमीन को खुर्द – बुर्द कर देने की आशंका जताई थी। हमारी आशंका को आज डीडा नैनीसार की घटना ने सही साबित किया है। खंडूरी सरकार द्वारा उद्योगपतियों के लिए पहाड़ की बेनाप – बंजर जमीनों की लूट का रास्ता खोले जाने के बाद राज्य की वर्तमान हरीश रावत सरकार ने इसे और भी सुगम बनाने के लिए कदम उठाए हैं। हरीश रावत सरकार ने पहाड़ में भूमि खरीद के साथ ही भू – उपयोग के स्वतः ही बदल जाने का शासनादेश जारी किया है। इससे पहाड़ के गौचर – पनघट व वन पंचायतों की जमीन के साथ ही कृषि भूमि का भी अन्य कार्यों के लिय भू – उपयोग बदलने की कार्यवाही से खरीददार बच जाएगा और वह भूमि की खरीद के साथ ही उसका अन्य कार्यों के लिए उपयोग कर सकेगा जैसा कि जिंदल समूह ने डीडा नैनीसार में तत्काल कर दिखाया है।

डीडा नैनीसार की घटना एक चेतावनी है। पहाड़ के गांवों को बचाने, पहाड़ वासियों के परम्परागत आजीविका के संसाधनों की लूट को रोकने के लिए एक बड़ी लड़ाई की जरूरत सामने आ पड़ी है। पहाड़ पहले ही एक भूमि संकट के मुहाने पर खड़ा है। यहाँ अब प्रति कृषक परिवार औसतन आधा एकड़ से भी कम कृषि भूमि बची है। भूमि की कमी और कृषि को रोजगार परक बनाने की नीतियों का सर्वथा अभाव ही लोगों को पहाड़ से पलायन के लिए मजबूर कर रहा है। पहाड़ की बेनाप – बंजर जमीन का पहाड़ में खेती पर निर्भर परिवारों के बीच वितरण कर कृषि क्षेत्र का विस्तार किए बिना और खेती को रोजगार परक बनाने के लिए नीतियाँ बनाए बिना पहाड़ से पलायन को रोकना असंभव है। पहाड़ के प्राकृतिक संसाधनों के रोजगारपरक उपयोग के लिए बनी योजना के केंद्र में गाँव के विकास व ग्रामीणों की परम्परागत आजीविका के विकास की गारंटी होगी या हमारे प्राकृतिक संसाधन बड़ी पूंजी के कब्जे में होंगे? डीडा नैनीसार की घटना ने यह यक्ष प्रश्न हमारे सामने खड़ा किया है। उत्तराखंड के लिए एक नया भूमि सुधार कानून का ऐजंडा अब आन्दोलन का ऐजंडा होना चाहिए, जिसमें हमारे हमारे गाँव की सीमा से लगे बेनाप – बंजर, गौचर – पनघट, नदी – तालाब की जमीन के प्रवंध व वितरण का अधिकार हमारी ग्राम पंचायतों के पास हो, ताकि देहरादून में बैठे सत्ताधारी डीडा नैनीसार की तरह हमारी जमीनों को देहरादून से ही खुर्द – बुर्द न कर सकें।

 

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