कुछ समय पहले जब हरीश रावत ये कह रहे थे कि “न खाता न बही, जो हरीश रावत कहे, वो ही सही” तो ऐसा लगा रहा था कि 2014 में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही वो अपने और अपनी सरकार के लिए कोई इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त कर चुके हैं. लेकिन खाता-बही वाले अपने अमृत वचन के दो-तीन महीने के अन्दर ही हरीश रावत की अवस्था यह हो गई कि खाता-बही से तो वो पहले ही हाथ झाड़ चुके थे, अब सत्ता से भी हाथ धो बैठे हैं.
सरकार गिराने को लेकर शुरू हुआ शह-मात का खेल जारी है. पल-पल बदलते घटनाक्रम में कभी हरीश रावत, कभी भाजपा के हवाई जहाज पर सवार होने वाले बागी और कभी बागियों की पीठ पर सवार भाजपा सिकंदर नजर आ रही है. लगातार यह चर्चा हो रही है कि इस पूरे खेल में जीत आखिर किसकी होगी? जीत का फैसला करने से पहले देख लें कि इस राजनीतिक रार के खिलाड़ियों में आपस में अंतर कितना है ! यानी जो लड़ रहे हैं, क्या उनमे कोई शराब, खनन, जमीन आदि के माफिया का पोषक है और दूसरा इसका विरोधी ? ऐसा तो नहीं है. लड़ाई तो मेरे माफिया बनाम तेरे माफिया की है. हर धड़े के अपने-अपने माफिया हैं, या माफिया की हैसियत तक पहुंचाने लायक छोटे-मोटे चिरकुट ! क्या यह इमानदारी बनाम बेईमानी की लड़ाई है? अगर ऐसा होता तो एक-दूसरे पर भ्रष्ट होने का आरोप लगाने वाले कांग्रेसी-भाजपाईयों के जांच आयोग राज्य के लिए सफ़ेद हाथी न बने होते. तो जाहिर सी बात है कि यह लड़ाई भ्रष्टाचार और माफिया ताकतों के विरुद्ध लड़ाई नहीं है. बल्कि अपने माफिया और भ्रष्टाचार के अपने हिस्से की लड़ाई है. इसमें जीत किसी की भी हो, जनता के हिस्से हार ही आनी है.
उत्तराखंड राज्य की लड़ाई विकास में हिस्सेदारी के लिए थी, संसाधनों पर अधिकार के लिए थी, बेहतर शिक्षा और स्वास्थय के लिए थी, रोजगार के लिए थी. पर हम रोजगार किसको दे पाए और विकास किसका कर पाए. इस बात का अंदाजा पहली कामचलाऊ सरकार के दूसरे मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी के वक्तव्य से लगाया जा सकता है. कोश्यारी के पास बेरोजगार युवा, रोजगार की मांग लेकर गए तो उन्होंने कहा “मैं तो खुद ही पचपन साल तक बेरोजगार था, मैं कहाँ से रोजगार दूंगा”. जाहिर सी बात है कि उत्तराखंड में कांग्रेस-भाजपा और उनके दागी-बागी ही रोजगार पा सके. बाकी जो रोजगार है, वो अतिथि, मित्र ब्रांड का है. इसमे काम तो पूरा वसूला जाता है, लेकिन वेतन अधूरा और वो भी कब मिले कोई भरोसा नहीं. सरकार जाने का फैसला तो अदालत में होगा पर सुनते हैं कि अतिथि शिक्षकों का रोजगार इस बीच जा चुका है. 16 साल में आठ मुख्यमंत्रियों की उपज विकास की कहानी का बिना जारी किये हुए, प्रकट हुआ श्वेत पत्र है.
सरकार से बेदखल होने के बाद हरीश रावत ने एक सभा में कहा कि “मैंने अपने परिवार में, अपने गांव में, दो रूपये की दवाई न खरीद पाने की वजह से बीमारी से लोगों को दम तोड़ते हुए देखा है। जब मैं मुख्यमंत्री बना तो मैंने पचास हजार रूपये की स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू की। ताकि गरीब आदमी को इलाज के लिए तरसना ना पड़े। जब मेरी थोड़ी और ताकत बढ़ी, तो मैंने स्वास्थ्य बीमा योजना की राशि को बढ़ाकर डेढ़ लाख रूपये कर दिया.” लेकिन क्या वाकई लोगों का इलाज का संकट हरीश रावत के द्वारा शुरू की गयी बीमा योजना ने हल कर दिया है? यदि वाकई ऐसा हो गया होता तो इलाज का संकट हल कर देने मात्र से हरीश रावत को हटाना उत्तराखंड के साथ भारी नाइंसाफी माना जाता. पर खाता-बही और गद्दी विहीन रावत साहब यह समझने को तैयार नहीं हैं कि इलाज के लिए प्राथमिक जरुरत बीमा नहीं अस्पताल में डाक्टरों की उपलब्धता है. पहाड़ में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर, जिला अस्पताल और मेडिकल कॉलेज तक सब जगह हालत यह है कि डाक्टरों का अकाल है. अस्पताल में डाक्टर नहीं तो प्राण रक्षा, बीमा तो नहीं करेगा हरदा. हमने अपने बेहतर इलाज के लिए राज्य माँगा और हुआ ये कि राज्य की राजनीति लाइलाज हो गयी.
राज्य के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री एन. डी. तिवारी ने गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि विश्वविद्यालय, पंतनगर की जमीनें उद्योगपतियों को सौंप दी. जमीनों का क्या मोल लगाया गया, यह भी देखिये. पंतनगर में टाटा की कार फैक्ट्री को पांच रूपया वर्ग मीटर के लीज रेंट(पट्टे के किराये) पर हज़ारों वर्ग मीटर जमीन दे दी गयी. जब इमानदारी का तमगा घुमाने वाले भुवन चन्द्र खंडूड़ी मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने टाटा का यह लीज रेंट कम कर एक रूपया वर्ग मीटर करवा दिया. हरीश रावत ने जमीने बेचने के लिए अपनी तरह के रास्ते ईजाद किये. उनके मंत्रिमडल ने फैसला कर दिया कि पहाड़ में कृषि भूमि को व्यावसायिक उपयोग के लिए खरीदने वालों को भू उपयोग बदलवाने का कष्ट भी नहीं करना पड़ेगा. बाकी जलविद्युत परियोजनाओं की भेंट कितनी भूमि चढ़ी, यह अलग से तफ्तीश का विषय है. हमने जमीन पर अधिकार के लिए राज्य माँगा और राज्य बनने की बाद सरकारों में जमीन बेचने की होड़ लग गयी.
एक जमाने में उत्तराखंड में “नशा नहीं रोजगार दो” आन्दोलन चला. लेकिन राज्य बनने के बाद नशा तो आय का प्रमुख स्रोत माना जाने लगा. नशे के व्यापारी सरकारों को अत्याधिक प्रिय हो गए. एन. डी. तिवारी की सरकार में पर्यटन और आबकारी मंत्री थे, टी.पी.एस.रावत. वही टी.पी.एस.रावत जिन्होंने कांग्रेस से भाजपा, वहां से रक्षा मोर्चा, आम आदमी पार्टी और फिर कांग्रेस तक की दौड़ पिछले पांच-सात सालों में रिकॉर्ड रफ़्तार से पूरी की. टी.पी.एस.रावत जी की आबकारी मंत्रित्व काल में यह चमत्कार हुआ कि आबकारी यानि शराब नीति मंत्रिमंडल से पहले शराब माफियाओं के पास पहुँच गई. इस पर तत्कालीन विपक्ष भाजपा ने उनपर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था. बाद में उसी भाजपा ने टी.पी.एस.रावत को लोकसभा पहुँचाया. खंडूड़ी जी मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने जो पहला काम किया, वो शराब की दुकानों के बंद होने का समय रात नौ बजे से बढाकर दस बजे कर दिया. हरीश रावत तो ख़म ठोक कर देश में फौग की टक्कर में उत्तराखंड डेनिस चलाते रहे. उन्हें रोजगार देने का भी यही रास्ता सूझा कि भांग की खेती करवाई जाए. “नशा नहीं रोजगार दो” आन्दोलन वाले प्रदेश में सरकार की नीति हो गयी “नशे से रोजगार दो”.
राज्य बनने के उद्देश्यों के ध्वस्त होने और जनता की निरंतर हार की यह गाथा, अनगिनत पृष्ठों तक लिखी जा सकती है. पर विषय तो यह कि ऐसा हुआ ही क्यूँ? उत्तराखंड एक जन आन्दोलन से बना राज्य है. विडंबना यह है कि आज जो सत्ता के लिए लड़ रहे हैं, उनका उस आन्दोलन में कोई नाम-ओ-निशान तक नहीं था. आन्दोलन काल में एन.डी.तिवारी ने बयान दिया कि “राज्य मेरी लाश पर बनेगा”, राज्य के खिलाफ उन्होंने लखनऊ में धरना दिया. बाद में वे राज्य के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री बने. भाजपा के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने 198 4 में लखनऊ में एक जनसभा में कहा था कि अलग उत्तराखंड राज्य की मांग, एक अलगाववादी मांग है. आर.एस.एस. वाले तो अलग उत्तराखंड की मांग को 1952 से लेकर राज्य बनने तक इस इलाके को चीन में मिला देने का कम्युनिस्टों का षड्यंत्र ही समझते थे. लोग 1994 में अलग राज्य के लिए सडक पर लाठी-गोली झेल रहे थे और हरीश रावत कह रहे थे कि राज्य नहीं हिल काउंसिल बननी चाहिए. उत्तराखंड आन्दोलन में 1994 का जनउभार ऐतिहासिक और प्रचंड था. उसमे इतने बड़े पैमाने पर लोग शामिल थे कि आज उत्तराखंड में चलने वाला कोई भी आन्दोलन उसके सामने फीका लगता है. लेकिन आज जो इस राज्य की दुर्दशा है, उसे समझने के लिए यह समझना जरुरी है कि आज सत्ता की बंदरबांट के लिए आपस में लड़ने वाले, उस राज्य की लड़ाई में कहीं नहीं थे. उत्तराखंड आन्दोलन की यही कमजोरी थी कि उसमे इस बात पर बहुत जोर था कि लड़ाई का स्वरूप गैर राजनीतिक रहे. एक राजनीतिक मांग के लिए चला गैर राजनीतिक आन्दोलन ही हमें इस त्रासद अवस्था तक ले आया. आन्दोलनकारियों ने गैर राजनीतिक तरीके से राज्य हासिल किया और राजनीति करने वालों ने इस पर कब्जा कर लिया. जब तक आन्दोलन चलाने वाले और राजनीती को संचालित करने वाले लोग अलग-अलग होंगे, तब तक यह त्रासद अवस्था तो बनी ही रहेगी.
(इन्द्रेश मैखुरी का मासिक पत्रिका -“स्टेट एजेंडा” के अप्रैल अंक में छपा लेख। यहां शीर्षक पत्रिका से भिन्न है )