रेल मंत्री सुरेश प्रभु द्वारा प्रस्तुत मोदी सरकार का रेल बजट उत्तराखंड के लिहाज से पूरी तरह निराशाजनक है. उत्तराखंड में पहले से मौजूद रेल नेटवर्क के इतर नया नेटवर्क जैसे ऋषिकेश-कर्णप्रयाग, रामनगर-चौखुटिया, टनकपुर-बागेश्वर आदि को विकसित करने में केंद्र सरकार की कोई रूचि नहीं है, यह रेल मंत्री के बजट भाषण से स्पष्ट है.
अंग्रेजी बजट भाषण के पृष्ठ संख्या 24 के बिंदु संख्या-49 में रेल मंत्री द्वारा मौजूदा नेटवर्क की क्षमता वृद्धि के फायदे गिनाने से साफ़ है, कि अभी तक रेल नेटवर्क से महरूम लोगों को रेल की आस छोड़ देनी चाहिए. रेल बजट के साथ दिए गए संलग्नक-एक में 2015-2019 तक रेलवे में जो प्रस्तावित निवेश का ब्यौरा दिया गया है, उसमें भी नए रेल नेटवर्क के लिए किसी धनराशि का प्रस्ताव नहीं है, जिससे स्पष्ट है कि उत्तराखंड को अगले चार सालों तक तो पहाड़ी क्षेत्रों में रेल के आने की बात अपने ख़याल से निकाल देनी चाहिए. जम्मू कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय तक रेल के विस्तार का जिक्र है पर उत्तराखंड का नाम तक नहीं लिया गया है. यह साफ़ दर्शाता है कि उत्तराखंड से लोकसभा की पाँचों सीटें जीतने के बावजूद यहाँ के पर्वतीय क्षेत्र में रेल नेटवर्क के विकास के प्रति नरेन्द्र मोदी सरकार का रवैया पूरी तरह उपेक्षापूर्ण है. उत्तराखंड के रेल बजट में नामो-निशाँ न होना यहाँ के पाँचों लोकसभा सांसदों के नाकारेपन को ही प्रदर्शित करता है.
देश की दृष्टि से देखें तो नरेन्द्र मोदी के दूसरे रेल मंत्री सुरेश प्रभु का यह रेल बजट निजीकरण को समर्पित, निराशाजनक और आधी-अधूरी तैयारी के साथ पेश किया गया बजट है. रेल मंत्री का यह कहना कि नयी ट्रेनों की घोषणा बाद में की जायेगी, यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि आम लोगों की सुविधाओं को बजट में शामिल करने के बारे में उन्होंने सोचने की भी जहमत नहीं उठायी.
देश में ट्रेनों के महिमा बखान के लिए रेल मंत्री ने महात्मा गांधी द्वारा ट्रेन से यात्रा करने का उदाहरण ऐसे दिया है जैसे गांधी जी अंग्रेजों की नहीं सुरेश प्रभु की सरकार द्वारा संचालित ट्रेन में यात्रा करते रहे हों.
किराया वृद्धि को पिछले रेल बजट में ईंधन के दामों से जोड़ दिया गया था, इसलिए उसका न बढ़ना कोई उपलब्धी नहीं है. ईंधन के दामों में तो भारी कमी आ चुकी है तो किराया तो घटाया जाना चाहिए था.
सफाई पर जोर दिया गया है और वर्तमान सफाई की स्थिति पर असंतोष प्रकट किया गया है. लेकिन इस सवाल का जवाब रेल मंत्री के पास नहीं है कि उनका और उनके पूर्ववर्तियों का जोर निजीकरण पर रहा है और सफाई व्यवस्था का पूरी तरह निजीकरण होने के बावजूद उसकी हालत असंतोषजनक क्यूँ है? बल्कि सफाई व्यवस्था में प्रोफेशनल एजेंसियों की मदद लेने की घोषणा के जरिये, निजीकरण की रफ़्तार बढाने का ऐलान ही रेल मंत्री ने किया है. उच्च विश्वसनीयता वाली एजेंसियों से खाना उपलब्ध करवाने की बात भी निजीकरण को बढ़ावा देने की प्रक्रिया का ही अंग है. केटरिंग सेवाओं के निजीकरण के बाद उनकी दुर्दशा को किसी सबूत की जरुरत नहीं है. स्टेशनों को विकसित करने के लिए भी निजी क्षेत्र को आमंत्रित करने के रेल मंत्री के प्रस्ताव से साफ़ है कि “रेल भारतीय जनता की सम्पत्ति बनी रहेगी”, यह रेल मंत्री की जुमलेबाजी ही है. वे पूरी तरह से भारतीय रेल को निजी क्षेत्र के हाथों सौंपने की योजना बना चुके हैं. रेल मंत्रालय में पहले से मौजूद पी.पी.पी. सेल को परिणामोन्मुखी बनाने की बात कही गयी है. इससे साफ़ है कि अब तक पी.पी.पी. से कोई परिणाम नहीं निकला है, लेकिन रेल मंत्री फिर भी रोजगार पी.पी.पी. के जरिये बढाने की बात कह रहे हैं.
सभी ट्रेनों को अधिक मात्रा में बढे हुए जरनल कोचों की जरुरत है तो फिर वे चिन्हित ट्रेनों में ही क्यूँ बढाए जायेंगे? जरनल कोचों की संख्या में मात्र 2 कोचों का इजाफा भी अपर्याप्त है.
कारपोरेटो, एन.जी.ओ. से यात्रा सुविधाओं के लिए पैसा दान करने की अपील करना, केंद्र सरकार और रेल मंत्री के आर्थिक और दिमागी दिवालियेपन को ही दर्शाता है. नवोन्मेष के नाम पर कायकल्प नामक परिषद का ऐलान अपने चहेतों को ही उपकृत करने का एक और उपाय है. यह रेल बजट मोदी सरकार के बाजार प्रेम के नमूने के अलावा कुछ भी नहीं है और ना ही इसमें कुछ उल्लेखनीय है.