भोजन, आवास, शिक्षा व स्वास्थ्य हमारे मानव समाज की बुनियादी जरूरतों में शामिल हैं। आज इन सब में शिक्षा ने सर्वोच्च स्थान ग्रहण कर लिया है। कारण कि हमारे मानव समाज ने आज यह मान लिया है कि बेहतर शिक्षा की बदौलत ही बेहतर भोजन, बेहतर आवास और बेहतर स्वास्थ प्राप्त किया जा सकता है। आजादी के बाद भी सरकार द्वारा प्रयाप्त स्कूल-कालेज उपलब्ध न करा पाने के कारण अपनी नई पीढी को शिक्षित करने के लिए सामुदायिक प्रयासों से जनता ने स्वयं स्कूल-कालेज खुलवा कर यह मुहिम शुरू की थी। तब से आज तक कुकुरमुत्तों की तरह उग आये हमारे सरकारी स्कूल – कालेजों के बावजूद भी बेहतर शिक्षा का हमारा सपना अधूरा ही रह गया है। अब इस अधूरे सपने को पूरा कराने का नया सपना दिखाते न सिर्फ कुकुरमुत्तों की तरह ही उग आये निजी शिक्षण संस्थान अपना जबड़ा खोले हर जगह खड़े हैं, बल्कि हमारी सरकारों ने खुद ही शिक्षा के निजीकरण व बाजारीकरण की नीतियों पर आगे बढ़ते हुए हमारे सरकारी शिक्षण संस्थानों को भी निजी हाथों में देने की मुहिम तेज कर दी है। इसका नतीजा निकला कि बेहतर शिक्षा पाने की इस चाह ने न सिर्फ बेहतर शिक्षा को आम आदमी से दूर किया है बल्कि शिक्षा के व्यवसायीकरण व निजीकरण के चलते उसकी गुणवत्ता में भी काफी ह्रास हुआ है।
क्या कभी इस बात का भी मूल्यांकन होगा कि जब से प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित सर्व शिक्षा, सतत शिक्षा जैसे संख्यात्मक व गुणात्मक परिवर्तन लाने के लक्ष्य वाले कार्यक्रम इस देश में लागू किये गए हैं, उससे स्थिति में क्या परिवर्तन आया है ? हमारे देश में आज भी अंगूठा टेकने वाले लोगों की संख्या में कमी का कारण सतत शिक्षा नहीं बल्कि उस अनपढ़ पीढी के लोगों की क्रमशः हो रही मृत्यु है। खुद शिक्षा विभाग व एनजीओ के माद्यम से अब तक अरबों रूपए इन कार्यक्रमों पर खर्च करने के बावजूद हमारे सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों तक में ज्यादातर मानकों को पूरा न करने के बावजूद खुल रहे तमाम छोटे-छोटे निजी स्कूलों में भी छात्रों की अच्छी संख्या पाई जाती है। उत्तराखंड इसका जीता जगता उदाहरण है जहां सैकड़ों सरकारी स्कूल 10 से कम बच्चों की संख्या के कारण बंद होने के कगार पर हैं और राज्य बनने के बाद से सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या में लगभग एक चौथाई से ज्यादा की कमी आ चुकी है।
इस कारण की तलाश किसी न किसी दिन तो जरूर करनी पड़ेगी कि क्यों लोग मानकों के अनुसार प्रशिक्षित प्राइमरी, माध्यमिक सरकारी शिक्षक से ज्यादा भरोसा निजी स्कूल के कम पढ़े अप्रशिक्षित शिक्षकों पर करते हैं ? आये दिन हम उत्तराखंड से लेकर बिहार तक के सरकारी स्कूलों के ऐसे शिक्षकों का समाचार भी देखते व सुनते हैं जिन्हें अपने मुख्यमंत्री या राष्ट्रपति का नाम पता नहीं होता है या वे हिन्दी या अंग्रेजी में गलत शब्द या व्याकरण बच्चों को पढ़ा रहे होते हैं। ऐसे में बच्चों की पढाई को बाधित कर एनजीओ के माध्यम से आए दिन इन शिक्षकों को दिए जा रहे प्रशिक्षण का भी क्या नए सिरे से मूल्यांकन नहीं होना चाहिए ? हमारा सरकारी स्कूल का 98 प्रतिशत शिक्षक भारी भरकम सरकारी वेतन लेने के बावजूद निजी स्कूल के शिक्षकों के पास अपने बच्चों को पढ़ाने भेज रहा है। जिन्हें स्वयं के द्वारा दी जा रही शिक्षा से अपने बच्चों का भविष्य डूबता नजर आ रहा हो उस सरकारी शिक्षक जमात पर भरोसा कर आप कैसी शिक्षा बाक़ी समाज को देना चाहते हैं ? यही कारण है कि सरकारी स्कूलों पर से जनता का विश्वास कम होता चला गया। आज सरकारी स्कूलों में समाज के सबसे निचले पायदान के वही बच्चे पढ़ने आ रहे हैं जिनके अभिभावकों के पास इसके अलावा और कोई विकल्प बचता ही नहीं है। शिक्षक कर्मचारी दर्पण पत्रिका के सम्पादक व उत्तराखंड के चर्चित शिक्षक नेता नवेंदु मठपाल जब कहते हैं कि शिक्षा के निजीकरण, बाजारीकरण व एनजीओकरण की नीति को ख़त्म किया जाय और सरकारी शिक्षकों के लिए अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य किया जाना चाहिए, तो मुझे लगता है कि जरूर इस दिशा में आज सोचे जाने की जरूरत है।
एक लोकतांत्रिक कहे जाने वाले देश में जनता का समान, वैज्ञानिक व रोजगारपरक शिक्षा की आकांक्षा रखना स्वाभाविक और तर्कसंगत है। पर शिक्षा के क्षेत्र में हमारी राज्य व केंद्र सरकारों के एजेंडे में ऐसा कभी भी नहीं रहा है। अंग्रेजों के समय से चली आ रही मैकाले शिक्षा पद्धत्ति को न सिर्फ हमारी सरकारों ने जारी रखा है, बल्कि आज उसे ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है जहां कुछ शिक्षण संस्थान भविष्य का छोटा सा अभिजात्य वर्ग तैयार कर रहे हैं वहीँ अन्य भविष्य के गुलामों की विशाल संख्या, देश में लागू ‘शिक्षा का अधिकार कानून’ भी सबको समान शिक्षा देने के बजाय देश के लाखों – करोड़ों गरीब बच्चों को मात्र अक्षरबोध कराने तक ही सीमित है। देश में लागू की जा रही कारपोरेट परस्त आर्थिक नीतियों के कारण जिस रफ़्तार से आज समाज में आर्थिक असमानता की खाई चौड़ी हो रही है ठीक उसी अनुपात में तकनीकी, उच्च व रोजगारपरक शिक्षा भी आम आदमी की पहुँच से बाहर होती जा रही है। यह बहस गैर जरूरी और मुद्दे से भटकाने वाली है कि देश या प्रदेश के शिक्षा मंत्री के पास क्या डिग्री होनी चाहिए। हाँ वे अपने बारे में सही जानकारी दें यह अपेक्षा देश की जनता जरूर रखेगी। हां बहस इस बात पर जरूर होनी चाहिए कि देश या राज्य के शिक्षा मंत्री के पास समान, वैज्ञानिक व रोजगारपरक शिक्षा का ढांचा खड़ा करने के लिए कोई सही दृष्टि और लक्ष्य है कि नहीं ?
नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद जैसी उम्मीद थी कि पहला हमला शिक्षा व संस्कृति पर ही होगा। ठीक ऐसा ही देखने को मिल रहा है। मोदी सरकार ने अपने पहले पूर्ण बजट वर्ष 2015-16 में शिक्षा के बजट में 16 प्रतिशत की कटौती कर दी है। वर्ष 2014-15 के बजट में जहां स्कूली शिक्षा व साक्षरता के लिए 55 हजार करोड़ का प्रावधान किया गया था, उसे वर्तमान बजट में घटा कर 42 हजार करोड़ कर दिया गया है। इसी तरह उच्च शिक्षा के लिए पिछले बजट में 28 हजार करोड़ का प्रावधान था जिसे इस बार घटा कर 27 हजार करोड़ कर दिया गया है। यही नहीं देश भर के हर विकास खंड में एक दृ एक माडल स्कूल खोलने की योजना के लिए भी मोदी सरकार ने राज्यों को किसी भी तरह की आर्थिक मदद देने से साफ़ इनकार कर दिया है। शिक्षा व्यवस्था को और बेहतर बनाने के लिए प्राथमिक स्तर की शिक्षा के ढाँचे में बुनियादी बदलाव करने के बजाय मोदी सरकार ने उसके बजट में भारी कमी कर शिक्षा की रीढ़ को ही तोड़ने का काम किया है। इसका सर्वाधिक असर देश के उन करोड़ों गरीब बच्चों पर पड़ेगा जो सरकारी स्कूलों में शिक्षा पाने को अभिशप्त हैं।
आज शिक्षा के क्षेत्र में सबसे बड़ा खतरा शिक्षा के भगवाकरण की मुहिम का चलाया जाना है। नरेंद्र मोदी के केन्द्रीय सत्ता में आने के बाद संघ परिवार केंद्र की सत्ता का इस्तेमाल कर इतिहास के पुनर्लेखन के नाम पर इतिहास को ही अपने माफिक बदलने की कोशिशें चला रहा है। वे इतिहास से ऐसे प्रतीकों को लाकर स्थापित कर रहे हैं जो उनकी साम्प्रयादिक व विभाजनकारी राजनीति के माफिक हो। बात यहीं तक नहीं रुक रही है, धार्मिक कहानियों में दर्ज घटनाओं व चमत्कारों को अतीत के भारत में हुए वैज्ञानिक आविष्कारों के रूप में दिखाने की कोशिशें चल रही हैं। जब एक तरफ भारत जैसे विशाल और दुनिया में अपनी बौद्धिक क्षमता का लोहा मनवाने वाले देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी इस बात की घोषणा कर रहे हों कि गणेश पुरातन भारत में शल्य चिकित्सा के विकास के सबसे बड़े सबूत है, वहीँ दूसरी ओर उनकी सरकार द्वारा रामायण व अन्य धार्मिक ग्रंथों में कल्पित उड़न खटोले को पुरातन भारत में विकसित विमानन तकनीक के रूप में साबित करने की मूर्खतापूर्ण कोशिशों को अंजाम दिया जा रहा हो, तो आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि मोदी भागवत युग में भारत की शिक्षा व्यवस्था में कैसे बदलाव आने वाले हैं।
दुनिया के सबसे पुराने सभ्यता व संस्कृति में से एक भारत में आज से लगभग तीन हजार वर्ष पहले धार्मिक पाखण्ड और धार्मिक अंधविश्वासों के खिलाफ ब्रहस्पति द्वारा प्रतिपादित लोकायत ( चार्वाक ) दर्शन वैज्ञानिक सोच और वैज्ञानिक पद्धत्ति को विकसित कर नई-नई खोजों की राह प्रशस्त कर रहा था। लगातार जनता में लोकप्रिय हो रहे लोकायत दर्शन से परास्त हो रहे बाद के दौर के भाववादियों ने एक आक्रामक अभियान चलाकर लोकायत दर्शन के एक एक ग्रन्थ को ढूँढ़-ढूँढ़ कर जला दिया था। भारत में तब विकसित हो रहे विज्ञान और वैज्ञानिक सोच को लम्बे समय के लिए बाधित कर इन भाववादियों ने भारत को फिर से धार्मिक पाखण्ड व अंधविश्वासों की अंधेरी सुरंग में लौटा दिया था। यही वह दौर था जब अमरीका और यूरोप में विज्ञान व वैज्ञानिक विचारधारा का विकास हुआ और वे हमसे आगे निकल गए। आज जब केंद्र की सत्ता में काबिज होने के बाद मोदी भागवत ब्रिगेड के लोग अब तक के इतिहास की किताबों को जला देने की वकालत कर रहे हैं, तो यह एक बार फिर भारत में विज्ञान व वैज्ञानिक सोच पर पुरातनपंथी भाववादियों के सोचे समझे हमले की ही रणनीति है जो फिर से भारत को धार्मिक पाखण्ड व अन्धविश्वासों की अन्धेरी सुरंग की तरफ धकेलने की ओर लक्षित है। हमें इस सब का डट कर विरोध करते हुए देश के अन्दर सबके लिए समान, वैज्ञानिक और रोजगारोन्मुखी शिक्षा नीति के निर्माण के संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।