नई दिल्ली, 13 जून 2018.
सर्वोच्च न्यायालय और मुख्य न्यायाधीश की कार्य प्रणाली पर गम्भीर सवाल व चिंता व्यक्त करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों को प्रेस कांफ्रेंस बुलाने का असाधारण कदम उठाना पड़ा है. उन्होंने कुछ बेहद महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया है और इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि मुख्य न्यायाधीश स्थापित मानदण्डों एवं अपने सहयोगी न्यायाधीशों की राय की अवहेलना करते हुए ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ के अपने प्राधिकार का दुरुपयोग कर चुनिन्दा संवेदनशील मुकदमों को अपनी पसन्द के कनिष्ठ जजों की बेंचों को दे रहे हैं. इसके निहितार्थ स्पष्ट हैं. उपरोक्त न्यायाधीशों ने इस तथ्य की ओर इंगित किया है कि मुख्य न्यायाधीश वर्तमान सरकार को फायदा पहुंचाने की मंशा से न्यायिक प्रक्रिया को तोड़-मरोड़ कर अपनी मनपसन्द बैंचों को मुकदमे दे रहे हैं – न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए यह बहुत बड़ा खतरा है. मुख्य न्यायाधीश बेशक ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ होते हैं परन्तु उनका दर्जा अन्य न्यायाधीशों के साथ बराबरी का होता है और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे रोस्टर (कार्यसूची) को तय करते समय पूर्व स्थापित मानदण्डों का पूरी पारदर्शिता के साथ पालन करेंगे, और यह भी कि मुख्य न्यायाधीश अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों के सुझावों/सलाहों को सम्मान देंगे.
जस्टिस लोया- जो सोहराबुद्दीन फर्जी एनकाउन्टर मामले की सुनवाई कर रहे थे जिसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह आरोपी हैं – की संदेहास्पद मौत से संम्बंधित पिटीशन को एक जूनियर न्यायाधीश को सौंप देना कल की प्रेस कांन्फ्रेंस की प्रमुख वजह बताया जा रहा है. उपरोक्त चारों न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश से इस सम्बंध में मुलाकात की परन्तु उनकी चिन्ताओं की पूरी अनदेखी कर दी गई. यह भी सामने आ रहा है कि इसी तरह के और भी सम्वेदनशील मुकदमों को जिनमें भ्रष्टाचार के मामले एवं ‘आधार’ से जुड़े मामले शामिल हैं, को पहले भी संदेहास्पद तरीके से जूनियर न्यायाधीशों की बैंचों को दिया गया अथवा मुख्य न्यायाधीश ने स्वयं अपने पास रख लिया.
लोकतंत्र के लिए ऐसे गम्भीर खतरे को देश के सामने लाने का साहस दिखाने के लिए उपरोक्त चारों न्यायाधीश सराहना के पात्र हैं. शासक पार्टी द्वारा इसे न्यायपालिका का अन्दरूनी मामला बताना एक निराधार तर्क है. भारत को लोकतंत्र के रूप में बने रहने के लिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता एक बेहद अहम मसला है. इस मामले को जनता के सामने लाकर उक्त न्यायाधीशों ने संविधान की रक्षा करने के अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है. हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि इन्दिरा गांधी की सरकार के आगे तब के सर्वोच्च न्यायालय के आत्मसमर्पण ने आपातकाल का रास्ता बनाया था – आज चार न्यायाधीशों ने देश को फिर से चेताया है कि हम एक और आपातकाल के बीच में इस वक्त खड़े हुए हैं.
यह जरूरी है कि सरकार एवं मुख्य न्यायाधीश उपरोक्त चार न्यायाधीशों के सरोकारों एवं मंतव्य को समझें और भविष्य के लिए सर्वोच्च न्यायालय की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता एवं शुचिता की गारंटी करने के लिए उपयुक्त कदम उठायें. भारत के राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करते हुए इस संवैधानिक संकट पर विचार करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने की सलाह सरकार को देनी चाहिए. यह भी जरूरी है कि जस्टिस लोया की संदेहास्पद मृत्यु से जुड़े तथ्यों व परिस्थितियों की भरोसेमंद रूप से जांच होनी चाहिए.
हम देश के आम लोगों एवं सभी लोकतंत्र पसंद शक्तियों से आग्रह करते हैं कि वे न्यायिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता के इस संघर्ष में चारों वरिष्ठ न्यायाधीशों का साथ दें, ताकि लोकतंत्र एवं कानून का राज जैसे अल्फाज़ बेमायने बन कर न रह जायें.
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प्रभात कुमार भाकपा(माले) केन्द्रीय कमेटी की ओर से जारी