अखिल भारतीय किसान महासभा का दूसरा राज्य सम्मेलन सम्पन्न – काॅमरेड पुरूषोत्तम शर्मा को प्रदेश अध्यक्ष चुने गए

अखिल भारतीय किसान महासभा  के दूसरे राज्य सम्मेलन  में आज काॅमरेड पुरूषोत्तम शर्मा को प्रदेश अध्यक्ष, अतुल सती को प्रदेश सचिव व बहादुर सिंह जंगी को राज्य वरिष्ठ उपाध्यक्ष  चुना गया। इसके अलावा 25 सदस्यों की राज्य समिति में भुवन जोशी, धन सिंह राणा, सुरेन्द्र ब्रिजवाल, मो यामीन बिन्नी, विमला रौथाण, आनन्द नेगी, लक्ष्मण सुयाल,  हयात राम, बसंती बिष्ट, आनन्द सिजवाली, राजेन्द्र शाह, धन सिंह बिष्ट, दान सिंह भण्डारी, मीना मेहता, शंकर चुफाल, गोपाल दत्त जोशी, गणेश दत्त पाठक, नारायण सिंह , गुलाम नवी को चुना गया।

अखिल भारतीय किसान महासभा के दो दिसवीय दूसरे राज्य सम्मलेन के मौके पर राज्य अध्यक्ष पुरुषोत्तम शर्मा द्वारा प्रतिनिधियों के सम्मुख पेश रिपोर्ट में कहा गया है कि मार्च 2011 में अपने पहले राज्य सम्मलेन (अल्मोड़ा) के बाद अखिल भारतीय किसान महासभा ने उत्तराखंड में किसानों के सवाल पर लड़ने वाले एक जुझारू किसान संगठन के रूप में खुद को स्थापित करने में सफलता पाई है। इन साढ़े चार वर्षों में हालांकि हम सांगठनिक तौर पर अपना अपेक्षित विस्तार नहीं कर पाए, पर हमने इस दौर में कई ऐसे आन्दोलनों को नेतृत्व दिया जो राज्य की राजनीति में चर्चित रहे। 2011 – 12 में चला तराई के वन गुर्ज्जरों व गोठ-खत्तावासियों का आन्दोलन, 2013 में धारचुला – मुनस्यारी और जोशीमठ में चला आपदा पीडि़तों का राहत व पुनर्वास का आन्दोलन, 2013 में ही बिन्दुखत्ता में चला मासूम संजना बलात्कार व हत्याकांड विरोधी आन्दोलन, दिसंबर 2014 से अब तक जारी बिन्दुखत्ता नगर पालिका विरोधी आन्दोलन ऐसे आन्दोलन रहे हैं जिन्होंने अखिल भारतीय किसान महासभा को एक विशिष्ठ पहचान दिलाई। इसके अलावा जब विनाशकारी विद्युत् परियोजनाओं के पक्ष में सरकार और विद्युत कंपनियों के कुछ नामी दलालों ने इसका विरोध करने वाले लोगों को धमकाना व एक लेखक पर श्रीनगर में हमला किया और विद्युत कंपनियों के पक्ष में जन गोलबंदी भी की, तो इसके खिलाफ जोशीमठ और श्रीनगर में आयोजित अखिल भारतीय किसान महासभा की साहसिक गोष्ठियों ने उस माहौल को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई। ये सभी आन्दोलन और हमारी सही समय पर ली गयी इन पहलकदमियों ने राज्य में एक जुझारू और जिम्मेदार किसान संगठन के रूप में हमें स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई।

रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड की भाजपा – कांग्रेस सरकारों द्वारा खेती किसानी पर किए जा रहे हमलों के कारण पिछले 15 वर्षों में 15 लाख किसानों को खेती – किसानी छोड़ पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा है। उत्तराखंड आज इन सरकारों की जन विरोधी नीतियों के कारण एक गंभीर भूमि संकट के मुहाने पर खड़ा है। राज्य की कुल भूमि के रकबे का कृषि के लिए अब 9 प्रतिशत भी नहीं बचा है, पहाड़ में तो स्थिति ने और भी विकराल रूप धारण कर लिया है और वहाँ अब लगभग 4 प्रतिशत भूमि पर ही खेती हो पा रही है। फिर भी जिंदल, अदानी, कोका कोला जैसी दर्जनों कारपोरेट कंपनियों, जल विद्युत् परियोजनाओं, सिडकुल के विस्तार और स्टोन क्रशरों के लिए उद्योगपतियों को मैदान से लेकर पहाड़ तक लगभग मुफ्त में हजारों हैक्टेयर कृषि, ग्राम समाज व वन की भूमि लुटाई जा रही है।

भूमि की इस लूट को विकास के नारे के साथ अमलीजामा पहनाया जा रहा है। इसका विरोध करने पर किसानों और उनके अगुआ नेताओं को विकास विरोधी बताकर आन्दोलन का दमन किया जा रहा है। पिछले एक साल से नगरपालिका के खिलाफ राजस्व गाँव की मांग पर चल रहे बिन्दुखत्ता के किसानों का आन्दोलन हो या द्वारसों के डीडा नैनीसार में गाँव की बेनाप बंजर भूमि को जिंदल समूह को दिए जाने के खिलाफ गाँव के किसानों का आन्दोलन हो, राज्य सरकार इन किसान आन्दोलनों का दमन कर रही है और आन्दोलनरत सैकड़ों किसानों व उनके अगुआ नेताओं पर संगीन धाराओं में मुकदमे लादे गए हैं। बिन्दुखत्ता में जबरदस्ती नगरपालिका का कार्यालय खोले जाने का शांतिपूर्ण विरोध कर रहे आन्दोलनकारियों पर राज्य के श्रम मंत्री हरीश दुर्गापाल की उपस्थिति में पुलिस के घेरे में लाए गए कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने हमला किया। महिलाओं से अभद्रता व मारपीट की और एक महिला का जेवर तक लूट ले गए। मगर पुलिस ने पीडि़त आन्दोलनकारियों की ओर से मुकदमा दर्ज करने के बजाए उलटा शांतिपूर्ण आन्दोलन कर रहे 250 आन्दोलनकारियों व उनके नेताओं पर ही संगीन धाराओं में फर्जी मुकदमा दर्ज कर दिया।

राज्य सरकार ने सीलिंग से फालतू जमीनों, ग्राम समाज की जमीनों, राज्य सरकार व वन विभाग की जमीनों में से हजारों हैक्टेयर भूमि को अदानी समूह सहित तमाम कारपोरेट कंपनियों, स्टोन क्रशरों, विद्युत कंपनियों और रियल इस्टेट कारोबारियों को कौडि़यों के भाव लुटाना जारी रखा है। जबकि राज्य के जरूरतमंद निवासी आपदा पीडि़तों, भूमिहीनों, आवासहीनों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों, वन गावों, वन गुर्ज्जरों और गोठ खत्तावासियों को जमीन देने के सवाल पर सरकार भूमि नहीं होने का बहाना बनाती आ रही है। इस सवाल पर राज्य की विपक्षी पार्टी भाजपा भी सरकार के साथ है और उक्राद, बसपा तो हमेशा से राज्य में सत्तरूढ़ सरकार की गोद में ही खुद को सुरक्षित समझती रही हैं। वन गुर्ज्जरों को फसल बोने से रोकने और पहाड़ी व अन्य खत्तों को फसल बोने का अधिकार देकर उनकी एकता को खंडित करने में फिलहाल सफलता पाई है। सदियों से वनों में रह कर पशुपालन व खेती कर अपना गुजर – बसर कर रहे वन गुर्ज्जरों और सुन्दरखाल के गरीब किसानों को हरीश रावत सरकार ने फसल बोने से रोक कर वनाधिकार कानून 2006 का खुला उलंघन किया है और उनका पुनर्वास भी नहीं किया जा रहा है।

राज्य में खासकर पर्वतीय क्षेत्र में चकबंदी के सवाल पर सरकार के ड्राफ्ट में चकबंदी के बाद मिलने वाली जमीन की मात्रा किसान की कुल जमीन से 25 प्रतिशत से अधिक न होने और 10 प्रतिशत सामुदायिक विकास के लिए निकाल लेने का प्रावधान है। यानी कुल मिलाकर अगर कोई किसान अपनी सिंचित भूमि छोड़ कर बंजर असिंचित भूमि लेता है तो उसे उसकी सिंचित से मात्र 15 प्रतिशत ही ज्यादा बंजर असिंचित भूमि मिलेगी। ऐसे में कौन किसान अपनी सिंचित भूमि को छोड़ना चाहेगा ?

राज्य सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण पहाड़ में खेती किसानी धीरे – धीरे दम तोड़ रही है। अंग्रेजों के जाने के बाद पहाड़ में कृषि के रकबे को बढाने पर न सिर्फ हमारी सरकारों ने कुमाऊं उत्तराखंड जमीन्दारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून (कूजा एक्ट) के जरिये  रोक लगा रखी है बल्कि उलटे विकास के नाम पर यहाँ के किसानों की खाते की जमीनें भी निशुल्क सरकारी विभागों के खाते में हस्तांतरित करने का अभियान राज्य बनने के बाद भी जारी है।

चकबंदी के अभाव में व्यावसायिक खेती का न होना व  पिछले 51 साल से भूमि बंदोबस्त का न होना भी खेती के प्रति मोहभंग का दूसरा प्रमुख कारण है। पर्वतीय कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य व सरकारी खरीद की गारंटी न होने, पहाड़ में तहसील स्तर पर लघु कृषि मंडियों के अभाव के चलते गरीब किसानों की मंडी तक पहुँच न होने से बिचैलियों की भारी लूट, पर्वतीय किसानों को बृक्षों के व्यावसायिक उत्पादन का अधिकार नहीं दिया है। भाजपा की खंडूरी सरकार द्वारा पहाड़ की बेनाप बंजर भूमि को रक्षित वन भूमि की श्रेणी से बाहर करने और ग्राम पंचायतों को न सोंपने के कारण पहाड़ की बेनाप बंजर जमीनों को राज्य सरकारें देहरादून से ही खुर्द – बुर्द कर रही हैं। द्वारसों के डीडा नैनीसार की घटना इसका जीता जागता उदाहरण है। हरीश रावत की सरकार ने तो पहाड़ में भूमि की खरीद के साथ ही भू उपयोग स्वतः ही बदल जाने का कानून बना कर भूमि लूट को और तेज कर दिया है।

पहाड़ में खेती – किसानी को बचाने के लिए कृषि क्षेत्र में बुनियादी ढाचांगत बदलाओं को किए बिना भांग – कोदा – कंडाली उगाओ – पेड़ उगाओ या भट्ट की चुल्कानी बनाओ जैसे मुख्यमंत्री हरीश रावत के जुमले पहाड़ के किसानों को धोखा देने के लिए की जा रही कोरी लफ्फाजी के सिवा और कुछ नहीं है – मैदानों में कृषि उपज की बिचैलियों द्वारा भारी लूट और लागत मूल्य भी न मिलने और गन्ना किसानों का मिलों पर भारी बकाया के कारण किसान भारी कर्ज के बोझ के नीचे पिस रहे हैं। आबादी के बीच स्थापित स्टोन क्रशरों के प्रदूषण से जीवन और फसलों को नुकसान तथा क्रशर लाबी की मनमानी व भूमि लूट भी इस बीच आन्दोलन का मुद्दा बने हैं। इसमें मलेथा, बीरपुर लच्छी, चोरगलिया और भाबर के किसानों की आवाज मुख्य रूप से चर्चा में रहे हैं। राज्य में सूखे व अतिबृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदा से हुए नुकसान में केंद्र व राज्य सरकारों का किसानों को मदद न पहुंचाना किसानों के प्रति सरकारी उपेक्षा का जीता जागता उदाहरण है।

राज्य सरकार द्वारा किसानों को संरक्षण देने व कृषि क्षेत्र में सरकारी पूंजी निवेश को बढ़ावा देने के बजाय राज्य में भूमि लूट के लिए ही नीतियाँ बनाई जा रही हैं। इन 15 वर्षों में कांग्रेस – भाजपा सरकारें भूमि लूट को बढाने के लिए एक दर्जन से ज्यादा शासनादेश व अध्यादेश ला चुकी हैं। सत्ता के खुले संरक्षण में भू – उपयोग बदल कर राज्य की थारू-बोक्सा जनजातियों और अनुसूचित जातियों के किसानों की जमीनों का भू – माफिया के हाथों जाना बदस्तूर जारी है। हरीश रावत सरकार ने राज्य में अनुसूचित जातियों के किसानों की 3.12 एकड़ से कम जमीन होने पर जमीनों की अन्य जातियों में बिक्री पर लगी कानूनी रोक को भी ढीला कर दिया है।

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