बीती 20 मई को हल्द्वानी-रुद्रपुर हाईवे पर, पंतनगर में डाबर फैक्ट्री के सामने ऐसी घटना घटी, जो उत्तराखंड के शांत वातावरण को देखते हुए काफी खतरनाक मानी जानी चाहिए. सडक पर आम दिनों की तरह यातायात चल रहा था. एक टेम्पो को सफेद रंग की बिना नम्बर वाली स्कार्पियो गाडी से कुछ लोग हाथ देकर रुकवाते हैं. जैसे ही टेम्पो रुकता है, स्कार्पियो में से कुछ कपडे से चेहरा ढके लोग, हाथ में लाठी-डंडे लिए उतरते हैं. वे टेम्पो में घुस कर एक शख्स पर हमला बोल देते हैं. ये लाठी-डंडों से लैस लोग, इस शख्स को ताबड़तोड़ पीटना शुरू कर देते हैं और बाकी सवारियों को भगा देते हैं. छोटे कद के इस शख्स को हमलावर उठा कर गाडी में डालने की कोशिश करते हैं. लेकिन उस शख्स के प्रतिरोध के चलते, हमलावर कामयाब नहीं हो पाते है. व्यस्ततम सडक पर भीड़ जमा होने लगती है. खुलेआम, एक व्यक्ति को 4-5 चेहरा ढके लोगों द्वारा पीटे जाते देख, लोग हमलावरों से सवाल करते हैं कि ये कौन है, इसे क्यूँ मार रहे हो? जिस शख्स को मार पीट रहे थे, उसके काबू में न आने और लोगों के जमा होने के चलते हमलावर भाग खड़े हुए. जिस शख्स पर हमला हुआ, वो उत्तराखंड में मजदूर आंदोलनों का एक प्रमुख चेहरा और ट्रेड यूनियन एक्टू (आल इंडिया सेंट्रल काउन्सिल ऑफ ट्रेड यूनियंस) के उत्तराखंड महामंत्री कामरेड के. के. बोरा हैं. हमलावर कौन थे, ये दस दिन से अधिक बीत जाने के बाद भी पुलिस नहीं तलाश पायी है या शायद उसकी रूचि उन्हें तलाशने में है भी नहीं !
पुलिस कॉमरेड के. के. बोरा के हमलावरों को तलाशने में रूचि न होने का आरोप इसलिए दमदार मालूम पड़ता है क्यूंकि उक्त हमले के एक दिन पहले -19 मई को श्रम कार्यालय, रुद्रपुर में के. के. बोरा को बिना वारंट उठाने की पुलिस कोशिश कर चुकी थी. क्या यह महज संयोग है कि एक दिन पुलिस और अगले दिन चेहरा ढके हुए हमलावर, के. के. बोरा के प्रति अपनी खुन्नस का इजहार करने के लिए एक ही वाक्य इस्तेमाल करते हैं – “बहुत जुलूस निकालता है?”
लेकिन सवाल है कि के. के. बोरा नाम का यह शख्स ऐसा करता क्या है कि पुलिस और अपराधी दोनों इस से खार खाए बैठे थे और दोनों ही इसे उठा ले जाना चाहते थे? इस सवाल का जवाब यह है कि के. के. बोरा उत्तराखंड में सिडकुल (स्टेट इंडस्ट्रियल कारपोरेशन ऑफ़ उत्तराखंड लिमिटेड) के तहत लगे उद्योगों में पिछले एक दशक से लगातार मजदूरों के अधिकारों की पैरवी करते हैं, उनके लिए हर मोर्चे पर लड़ते रहे हैं. जैसा कि पूरे देश में नया चलन उभरा है कि मजदूर अधिकारों पर पूरी तरह प्रतिबंध वाले औद्यगिक आस्थानों को बढावा दिया जा रहा है. सिडकुल में लगने वाले उद्योगों में भी इसी तरह के हालात हैं.
यहाँ लगने वाले उद्योगों को एक्साइज ड्यूटी समेत कई प्रकार के टैक्सों में छूट मिली, इसे नवउदारवादी भाषा में टैक्स हॉलिडे कहते हैं यानि टैक्स देने की छुट्टी. टैक्स न देना अन्यथा, गैरकानूनी कृत्य है. पर पूँजी और उसकी पिछलग्गू सरकारों की करामात देखिये, उन्होंने एक गैरकानूनी कृत्य को शब्दों की बाजीगरी से उत्सव में तब्दील कर दिया है – छुट्टी का उत्सव, टैक्स न देने का उत्सव ! सिडकुल में सिर्फ टैक्स में ही छूट नहीं है बल्कि बिजली में छूट हासिल है, परिवहन पर छूट है, जमीन मामूली दरों पर मिलती है. लेकिन उसकी एवज में इन उद्योगों में काम करने वाले युवाओं को न्यूनतम मजदूरी से लेकर बेहतर कार्यस्थितियों तक, कुछ भी हासिल नहीं होता है. रोजगार स्थायी नहीं है बल्कि ठेके पर ही मिलता है. प्रबंधन का मनमानापन अलग से झेलना होता है. पूरे सिडकुल को श्रम कानूनों से मुक्त टापू बनाने की कोशिश मालिक, सरकार, प्रशासन और पुलिस की निरंतर रहती है. इसीलिए समय-समय पर यह मजदूरों का असंतोष प्रकट होता रहता है.
के. के. बोरा पर हमले की तात्कालिक वजह भी ऐसी एक फैक्ट्री मिंडा इंडस्ट्रीज लिमिटेड में चल रहा मजदूर आन्दोलन प्रतीत होता है. बैटरी बनाने वाली इस फैक्ट्री में बीते आठ सालों से उत्पादन हो रहा है. लेकिन आठ सालों में इन्होने अपने यहाँ काम करने वाले मजदूरों को नियुक्ति पत्र तक नहीं दिया. इस फैक्ट्री में लेड जैसे घातक रसायनों का प्रयोग होता है. इसलिए हर 6 महीने में काम करने वाले मजदूरों के खून की जांच करवाई जाती है. कामरेड के. के. बोरा बताते हैं कि कभी भी खून की जांच रिपोर्ट न सार्वजनिक की गयी और न ही जिनकी यह रिपोर्ट थी, उन्हें दिखाई गयी. ब्लड रिपोर्ट आने के बाद, कुछ मजदूरों को काम से निकल दिया जाता है. यह इस बात का संकेत है कि खतरनाक रसायनों के बीच काम करते-करते, उनकी चपेट में ये मजदूर आ चुके होते हैं. इस फैक्ट्री में मजदूर कितनी नारकीय परिस्थिति में काम करते हैं, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगा सकते हैं कि एक बार ए.एल.सी. (सहायक श्रम आयुक्त) फैक्ट्री की जांच करने गये तो वहां से लौट कर बोले कि सांस लेना मुश्किल हो रहा है. जहाँ मात्र कुछ देर के लिए जाने पर एक अफसर के लिए सांस लेना मुश्किल हो जाता हो, वहां मजदूर सालों-साल काम करते हैं, तब तक करते हैं, जब तक कि जहरीले रसायन उनके शरीर को पूरी तरह नष्ट नहीं कर देते.
नियुक्ति पत्र, ओवरटाइम, बोनस का पैसा देने समेत विभिन्न मांगों और अपने निकाले गए साथियों की बहाली के लिए पिछले 85 दिन से मिंडा फैक्ट्री के मजदूर आन्दोलनरत हैं. के. के. बोरा आरोप लगाते हैं कि श्रम कार्यालय की फैक्ट्री प्रबंधन से मिलीभगत है. श्रम कार्यालय में वाद दायर करने के बाद प्रबन्धन को नोटिस तक नहीं भेजा गया, जिससे मजदूर श्रम कानूनों के तहत मिलने वाली सुरक्षा से वंचित हो गए. हल्द्वानी में श्रम कार्यालय में 50 दिन धरना चलाने के बाद मजदूरों को पहचान पत्र (आई कार्ड) और नियुक्ति पत्र प्राप्त हो सका. मिंडा प्रबन्धन की मनमानी और श्रम कार्यालय की उनके साथ मिलीभगत के खिलाफ मजदूर उच्च न्यायालय, नैनीताल गए. वहां दाखिल याचिका में उन्होंने मिंडा प्रबन्धन के अतिरिक्त श्रम कार्यालय को भी पार्टी बनाया है.
मिंडा प्रबन्धन का रवैया किस कदर दमनकारी है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगा सकते हैं कि मजदूरों ने कैंडल मार्च निकाला तो उस कैंडल मार्च के विडियो को देख कर कई मजदूरों के लिए गेट बंदी कर दी गयी, उनका फैक्ट्री में आना ही प्रतिबंधित कर दिया गया. लेकिन इसके बावजूद यह आन्दोलन लगातार चलता रहा. के. के. बोरा बताते हैं कि मिंडा फैक्ट्री के एच.आर. मैनेजर प्रवीण सिंह रावत ने उन्हें मामले से दूर रहने या फिर अंजाम भुगतने की धमकी दी थी. परिस्थितियां तो इसी ओर इशारा करती हैं कि अंजाम भुगतने की धमकी को जानलेवा हद तक कार्यान्वित करने की कोशिश की गयी. यह जानलेवा रास्ता पुलिस द्वारा उठवाने की कोशिश के विफल रहने के चलते अमल में लाया गया, प्रतीत होता है. कामरेड के. के. बोरा पर हमले के दिन ही मिंडा प्रबन्धन को ईमेल से एक पत्र इस लेखक द्वारा भेजा गया. उक्त पत्र में सवाल उठाया गया कि क्या सारे कानूनी रास्ते बंद हो गए हैं, जो यह हमले का रास्ता चुना गया. पत्र का इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कोई जवाब नहीं मिला है. इससे यह भी लगता है कि घटना में अपनी संलिप्तता के आरोप पर भी मिंडा प्रबन्धन को कुछ नहीं कहना, उसका खंडन भी नहीं करना है. हमारे यहाँ तो मौन को स्वीकृति का ही लक्षण बताया गया है !
दरअसल पूरे सिडकुल को फैक्ट्री मालिकों, सरकार,प्रशासन और पुलिस के गठजोड़ ने एक जेल में तब्दील कर दिया है. श्रम कानूनों और मजदूरों के अधिकार जैसे शब्दों से तक, इस गठजोड़ को घृणा की हद तक चिढ है. इस घृणा की एक बानगी देखिये. 2006-07 में भास्कार जेनसेट बनाने वाली फैक्ट्री में मजदूरों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाना शुरू किया. दूरस्थ पहाड़ी परिवेश आये ये मजदूर न तो यूनियन जानते थे, न बहुत श्रम कानूनों के बारे में ही जानते थे. पर न्यूनतम वेतन में अधिकतम काम लिए जाने ने, उन्हें आवाज उठाने पर मजबूर कर दिया. इस आन्दोलन के सिलसिले में एक बार वे देहरादून में श्रम सचिव के आमन्त्रण पर वार्ता हेतु गए. श्रम सचिव ने उनकी दिक्कत पूछने के बजाय पहला सवाल दागा – “बताओ, नौकरी करना चाहते हो या नेतागिरी”. वास्तविकता यह थी कि इस मामले में नेतागिरी तो शुरू ही तब हुई थी, जब नौकरी चली गयी. वरना भास्कर कंपनी में तो कोई यूनियन तक नहीं थी, वहां यूनियन भी एस.डी.एम. ने बनवाई थी. दूरस्थ पहाड़ी गाँव के साधारण परिवारों के ये लड़के, नौकरी करने ही आये थे. इतनी दूर से भास्कर की फैक्ट्री बंद करवाने के लिए तो वे कतई नहीं आये थे. परन्तु फैक्ट्री प्रबंधन के पक्ष में पूरी तरह झुकी हुई नौकरशाही को यह कौन समझा सकता है?
सत्ताधारियों की मजदूरों के अधिकारों के बारे में क्या राय है, यह भी जान लीजिये. भाकपा(माले) के केन्द्रीय कमेटी के सदस्य और एक्टू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कामरेड राजा बहुगुणा बताते हैं कि अभी कुछ दिन पहले ही मजदूरों का एक दल, हल्द्वानी में उत्तराखंड की एक कद्दावर मंत्री से मिला. मंत्री महोदया ने मजदूरों से कहा कि तुम लोग कायदे से रहो क्योंकि एनडी तिवारी सिडकुल को नो यूनियन, नो हडताल व न्यूनतम वेतन की शर्त पर लाए थे. मंत्री महोदया ने जो मजदूरों से कहा, वह पूरे सत्ता प्रतिष्ठान का प्रतिनिधि विचार है, जिसका सीधा आशय यह है कि मजदूरों को अपने लिए किसी अधिकार, कानून की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए और पूंजीपतियों के बंधुवा की तरह अपनी जिन्दगी खपा देनी चाहिए.
जब सत्ता और उसके अधीन चलने वाला प्रशासन मजदूरों के प्रति ऐसा शत्रुतापूर्ण रवैया रखता हों और पूरी तरह पूँजी के लठैत की भूमिका में हों, तो ऐसे में किसी भी व्यक्ति का मजदूरों के पक्ष में उतरना जोखिम वाला काम तो बन ही जाता है. कामरेड के.के.बोरा यही जोखिम पिछले दस वर्षों से उठाये हुए थे. वर्तमान में मजदूरों के अधिकारों के लगभग 30-40 मुकदमे तो वे लेबर कोर्ट में ही लड़ रहे हैं. हाई कोर्ट में भी मुक़दमे हैं. कई सूचना अधिकार की अर्जियां हैं, जिनमे सूचना, बिना सूचना आयोग में अपील के मिलना भी टेढ़ी खीर है. हाई कोर्ट में भी मजदूरों के लड़ाई वे लड़ रहे हैं. इसलिए सिडकुल के मजदूरों के बीच वे लोकप्रिय नेता हैं. हल्द्वानी-रुद्रपुर या लालकुँआ-रुद्रपुर के बीच चलने वाले टेम्पो में युवा मजदूरों को आपस में के. के. बोरा की चर्चा करते हुए आप कभी भी सुन सकते हैं. ऐसा भी सुना जा सकता है कि कोई युवा मजदूर अपने दूसरे साथी को उत्साह से बताये कि “यार आज मैं के. के. बोरा से मिला, पता है !”
मजदूरों के हक़ में निरंतर जूझने के चलते बनी इस लोकप्रियता ने ही शायद सिडकुल में पूँजी के लठैतों को बौखला दिया और वे के. के. बोरा को ठिकाने लगाने पर उतारू हो गया. यह आश्चर्यजनक है कि जो उत्तराखंड राज्य बेहतर रोजगार की आकांक्षा की पूर्ति के लिए बना था, उसमे सम्मानजनक रोजगार की मांग के पक्ष में डटे रहना भी किसी के लिए प्राणघातक हो सकता है ! पुलिस प्रशासन का रवैया तो खैर ज्ञात है ही. उधमसिंह नगर जिले के जिलाधिकारी व वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक तथा कुमाऊँ मंडल के कमिश्नर को घटना की जानकारी देने के बावजूद ऍफ़.आई.आर. दर्ज होने में भी चौबीस घंटे लग गए. राज्य के पुलिस महानिदेशक एम.ए.गणपति को भी पूरी घटना से अवगत करवाया गया. पर घटना के हफ्ता बीतते-न-बीतते उन्होंने घटना की जानकारी होने से ही इंकार कर दिया. 13 जिलों के छोटे से राज्य में यदि एक लोकप्रिय मजदूर नेता पर प्राणघातक हमले से यदि राज्य का पुलिस प्रमुख अनभिज्ञ रहता है तो या तो पुलिस का सूचना तंत्र ही बेहद लचर है या फिर पुलिस प्रमुख जानकर भी अंजान बन रहे हैं अथवा बनने को विवश हैं.
कतिपय समाचार पत्रों में इस आशय की ख़बरें प्लांट करवाई जा रही हैं कि मजदूरों के असंतोष से सिडकुल में पूँजी निवेश प्रभावित हो रहा है और औद्योगिक वातावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है. अव्वल तो सिडकुल में फैक्ट्री लगाने वाले जितना पूँजी निवेश अपने मुनाफे के लिए करता है, सरकार उससे कहीं ज्यादा निवेश, संसाधनों और टैक्स में छूट के रूप में उसका मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए करती है. इसलिए पूँजी निवेश तो झुनझुना मात्र ही है. रही बात औद्योगिक वातावरण की तो मजदूरों के हक़ में आवाज उठाने से तो औद्योगिक वातावरण प्रभावित होता है, लेकिन एक मजदूर नेता को क़त्ल करने की कोशिश से क्या यह प्रोत्साहित होता है? क्या औद्योगिक वातावरण श्रमिकों का खून चूस कर और उनके नेता खून बहा कर ही फलता-फूलता है?
अभी कुछ दिन पहले राज्य में कांग्रेस पार्टी की आंतरिक बगावत और भाजपा द्वारा इसे सत्ता हथियाने की कोशिश के रूप में इस्तेमाल किये जाने के चलते मुख्यमंत्री हरीश रावत की गद्दी डगमगा गई थी. कुर्सी छिनते ही हरीश रावत पूरे प्रदेश में “लोकतंत्र बचाओ” यात्रा करने लगे. उनके वापस गद्दीनशीन होने के कुछ दिन बाद ही रुद्रपुर में के. के. बोरा पर जानलेवा हमला हो गया. जिसमे दिन दहाड़े एक मजदूर नेता क अगवा करने और जान से मारने की कोशिश होती है, रावत साहब क्या यही है आपके ब्रांड का लोकतंत्र, जिसे बचाने के लिए आप चिंतित थे? ये लोकतंत्र है तो गुंडई कैसी होती है हरीश रावत जी?
(लेखक इंद्रेश मैखुरी, भाकपा (माले) उत्तराखण्ड के राज्य कमेटी सदस्य हैं)