ऐसा सूखा पिछले 55 साल में नहीं देखा. उत्तराखंड के मध्य हिमालयी क्षेत्र में फरवरी मध्य तक लगातार पांच महीने वर्षा ही नहीं हुई और उसके बाद भी सिर्फ नाम मात्र की. इस लिए इस क्षेत्र में फैली पहाड़ की सर्वाधिक खेती जिसमें रवि फसलों की बुवाई सितम्बर से नवम्बर तक हो जाती है की जमीन में आज नाम मात्र की हरियाली दिखती है. पहाड़ के हजारों गावों में इस बार दूर दूर तक हरियाली ढूँढ़ना कोहिनूर की तलास के सामान है. कुछ घाटी क्षेत्रों या उच्च हिमालयी क्षेत्रों को छोड़ दें तो बाक़ी पूरा पहाड़ आज भयानक सूखे की मार झेल रहा है. जिस जनवरी माह में पहाड़ की ठिठुरन घाटी क्षेत्रों में भी हड्डियों को कंपा देती थी, उस जनवरी माह के अंत में बढ़ गयी गर्मी के चलते यहाँ आम और लीची पर बौर आने शुरू हो गए थे. जो काफल जंगलों में चैत्र माह में पकना शुरू होता था वह फाल्गुन में ही सूख कर लाल हो गया था. हजारों ऐसे गावों में जिनकी खेती वर्षा जल पर ही निर्भर है खेत में बोया बीज मिट्टी के नीचे अंकुरित ही नहीं हो पाया. जहां वह बीज अंकुरित होकर ऊपर आया तो वह वर्षा के अभाव में सूख गया. लगभग 15 प्रतिशत जिस खेती में सिंचाई या वर्षा जल के कारण कुछ फसल दिख भी रही थी, बंदरों, लंगूरों, सूअरों और हिरणों के आक्रमण से उसकी भी रक्षा नहीं हो पाई. नतीजतन इन फसलों को बर्बाद होता देख किसानों ने उन्हें पकने से पहले ही काट कर अपने पालतू जानवरों को खिलाना शुरू कर दिया है.
मैंने पहाड़ के जिन विकास खण्डों (प्रखंडों) में इस रवि फसल में सूखे की स्थिति का जायजा स्वयं लिया उनकी स्थिति बड़ी डरावनी है. अल्मोड़ा जिले का सल्ट, भिक्यासेंण, द्वाराहाट, ताडीखेत, भैसियाछाना, धौलादेवी, नैनीताल जिले के बेतालघाट जैसे विकास खण्डों में 85 से 90 प्रतिशत तक सूखा पड़ा है. स्याल्दे और चौखुटिया विकास खण्डों में भी 70 से 80 प्रतिशत तक सूखा पड़ा है. पौड़ी जिले के खिर्सू और थलीसैंण चमोली के गैरसैंण और कर्णप्रयाग में भी 70 से 80 प्रतिशत सूखा पड़ा है. प्राप्त सूचनाओं के अनुसार बागेश्वर, चम्पावत, टिहरी, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी जैसे अन्य पर्वतीय जिलों में भी सूखे की यही स्थिति है. उत्तराखंड के पहाड़ में इस बार बारिश न होने और बर्फ के बहुत ही कम गिरने के कारण भूजल स्रोतों में भी काफी कमी आ गयी है जिसके चलते अब गरमी बढ़ने के साथ ही पीने के पानी के लिए भी हाहाकार मचने की स्थिति आ गयी है. पहाड़ के इस सूखे से उत्पन्न पानी संकट का असर उतर भारत के गंगा के मैदानों पर भी पडे़गा क्योंकि उनका भी जल श्रोत हिमालय और पहाड़ ही है.
पहाड़ के किसानों की हाड़ तोड़ मेहनत बेकार चली गयी है. तीन साल से लगातार आ रही प्राकृतिक आपदा और अन्य कोई रोजगार के साधन न होने के कारण लोगों का रोटी की तलाश में और भी ज्यादा पलायन हो रहा है. वैसे भी राज्य बनने के बाद यहाँ अब तक सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस–भाजपा की सभी सरकारों ने पहाड़ में कृषि क्षेत्र की पूर्ण उपेक्षा ही की है. इसी का नतीजा है कि पिछले पंद्रह वर्षों में पहाड़ से लगभग पंद्रह लाख किसान पलायन के लिए मजबूर हुए हैं. आज पहाड़ के गावों की बड़ी डरावनी तस्वीर हमारे सामने है. लगभग पंद्रह सौ गावों में घरों पर पूरी तरह से ताले लग गए हैं. अभी आ रहे आंकड़ों के अनुसार अल्मोड़ा जिले में स्थापित लगभग 13 सौ सरकारी स्कूलों में से लगभग 800 स्कूलों में छात्र संख्या 10 से भी कम हो गयी है और उन पर बंदी की तलवार लटक रही है. एक अनुमान के अनुसार राज्य में ऐसे ही लगभग चार हजार स्कूलों पर इस सत्र में ताले लटकने का खतरा पैदा हो गया है क्योंकि वहाँ पलायन के कारण बच्चों के बढ़ने की कोई संभावना नहीं है. इसके बावजूद हरीश रावत की सरकार ने राज्य में मात्र 20 प्रतिशत सूखे की ही रिपोर्ट जारी की थी.
सन् 2013 की आपदा के बाद से पहाड़ की खेती पिछले तीन साल से लगातार सूखे और अतिबृष्टि की मार झेल रही है. मगर पहाड़ के लगभग 80 प्रतिशत प्रभावित किसानों को राज्य या केंद्र सरकार की ओर से कभी कोई राहत नहीं दी गयी है. पहाड़ में कृषि बीमा पालिसी अब तक शुरू ही नहीं हुई है और इसमें बीमा कंपनियों को भी कोई दिलचस्पी नहीं है. जिस कृषि ऋण के साथ फसल बीमा अनिवार्य किया गया है पहाड़ के किसानों का उस ऋण से भी कोई वास्ता नहीं रहता है. हल बैल से मुख्यतः जैविक तरीके से खेती कर रहे पहाड़ के इन किसानों को न हमारी सरकारों की ओर से मिल रही कृषि यंत्रों की सब्सिडी का हिस्सा मिल पाता है और न ही डीजल या बिजली की सब्सिडी. उनकी फसलों की खरीद की गारंटी के लिए कोई सरकारी क्रय केंद्र भी नहीं लगाए जाते हैं. यानी पहाड़ के किसान और पहाड़ की खेती को आज भी ईश्वर के भरोसे ही हमारी सरकारों ने छोड़ा है. खेती किसानी के प्रति उत्तराखंड की सरकार कितनी संजीदा है इस बात का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि उत्तर प्रदेश में रहते हुए जो कृषि विषय जूनियर कक्षाओं में अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाता था, राज्य बनाने के बाद उस कृषि विषय को पूरी तरह से हटा दिया गया है .