हे.न.ब.गढ़वाल विश्वविद्यालय के श्रीनगर (गढ़वाल) स्थित बिड़ला परिसर के छात्र संघ चुनाव में छात्रा प्रतिनिधि (Girl’s representative) पद पर आइसा की शिवानी पाण्डेय को 2935 वोट पड़े और वो 1501 वोटों से विजयी रही. इस जीत का उल्लेखनीय पहलु यह है कि जिस पद (छात्रा प्रतिनिधि) पर आइसा की जीत हुई है, उस पद का सृजन आइसा के विगत एक वर्ष के संघर्षों का परिणाम है.
गढ़वाल विश्वविद्यालय में नब्बे के दशक के अंतिम वर्ष तक छात्र संघ में दो पद – उपाध्यक्ष और सांस्कृतिक सचिव चक्रानुक्रम (rotation) में छात्राओं के लिए आरक्षित होते थे. लेकिन उसके बाद छात्र संघ के चुनावों के प्रारूप में हुए बदलाव के बाद छात्राओं के लिए अलग से प्रतिनिधित्व का रास्ता स्वतः ही बंद हो गया. हालांकि यह दीगर बात है कि उस दौर में भी आइसा ने छात्राओं को अध्यक्ष पद पर चुनाव लडवाया. लेकिन छात्र संघ चुनावों में बढ़ते धनबल और हुडदंग के बीच छात्राओं की हिस्सेदारी के अवसर सिमटते चले गए. इस बात को एक छात्र संगठन के बतौर आइसा ने महसूस किया और पिछले सत्र से इस सत्र तक छात्राओं के प्रतिनिधित्व के लिए अलग पद के सृजन की मांग के लिए धारावाहिक आन्दोलन चलाया. इस आन्दोलन का ही असर था कि गढ़वाल विश्वविद्यालय की एकेडमिक काउन्सिल ने छात्रा प्रतिनिधि नाम के एक अलग पद के सृजन का प्रस्ताव पास किया. इस तथ्य को भी नोट किया जाना चाहिए कि भले ही आइसा ने यह आन्दोलन विश्वविद्यालय के श्रीनगर परिसर में ही चलाया पर, इस आन्दोलन के प्रभाव में छात्रा प्रतिनिधि पद का सृजन विश्वविद्यालय के सभी परिसरों में हुआ. इसका प्रभाव यह भी हुआ कि लम्बे अरसे बाद गढ़वाल विश्वविद्यालय में चुनाव लड़ने वाली छात्राओं की संख्या में काफी इजाफा हुआ. विश्वविद्यालय के श्रीनगर परिसर में ही तीन पदों पर 4 छात्राओं ने चुनाव लड़ा और उनमे से तीन चुनाव जीती भी. गढ़वाल विश्वविद्यालय में एक छात्र संघ में यह संभवतः छात्राओं की सर्वाधिक संख्या है.
इस तरह देखें तो आइसा ने दो चरणों के संघर्ष से यह चुनावी जीत हासिल की. पहले चरण का संघर्ष पद सृजन के लिए था और दूसरे चरण का संघर्ष चुनाव में जीत के लिए था. दूसरे चरण का संघर्ष इसलिए भी थोडा अधिक कठिन था क्यूंकि इसमें बहुत निम्न स्तर पर उतर कर आइसा की प्रत्याशी के विरुद्ध आरोप लगाए और उसके खिलाफ अंदरखाने सोशल मीडिया पर भी व्यापक घृणा अभियान चलाया गया. चूँकि आइसा निरंतर देश के अन्य हिस्सों की तरह ही गढ़वाल विश्वविद्यालय में भी छात्र समुदाय और देश दुनिया के सवालों पर साहसिक पहलकदमी लेता रहा, दक्षिणपंथी उन्माद को निरंतर साहसपूर्ण चुनौती देता रहा. इसलिए विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं द्वारा तमाम मिथ्या प्रचारों को दरकिनार कर आइसा की क्रांतिकारी विचारधारा के पक्ष में किया गये मतदान का विशेष महत्व है. बीते कुछ सालों में गढ़वाल विश्वविद्यालय में यह ट्रेंड तेजी से बढ़ा है कि मुख्य पदों पर भी प्रत्याशी महज मुखौटा है और सारा खेल उसके पीछे खड़े स्वघोषित मठाधीश चलाते हैं. इनकी चुनाव में एकमात्र रूचि यह होती है कि विश्वविद्यालय में पड़ने वाले विभिन्न ठेके या तो उन्हें मिलें या उनमे कमिशन मिले और विश्वविद्यालय के बाहर भी वे जमकर पैसा वसूली कर सकें. इस के बीच में आइसा का पूरा चुनाव अभियान सामान्य छात्र-छात्राओं द्वारा चलाया गया अभियान था और इस तरह उन्हीं सामन्य छात्र-छात्राओं की जीत भी है. जब पूरा छात्र संघ का चुनाव “चाय-समोसा-लॉलीपॉप, फलाना भाई सबसे टॉप”, और “जीते तो रंग चढ़ेगा, नहीं तो कट्टा बम चलेगा” जैसे अराजक और हुडदंगी नारों और पैसा शराब का भौंडा प्रदर्शन बन कर रह गया हो, उसके बीच लगभग बिना पैसे के, सिर्फ छात्र हितों और देश-दुनिया के सवालों को चुनाव का मुद्दा बना कर और हस्तनिर्मित आकर्षक प्रचार सामग्री के दम पर चुनाव जीतना, एक संगठन के तौर पर आइसा के लिए ही उपलब्धि नहीं है बल्कि छात्र राजनीति के लिए भी एक सकारात्मक संकेत है.
इंद्रेश मैखुरी, राज्य कमेटी सदस्य, भाकपा(माले)