एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में दो शोध छात्रों ने अपने सहपाठी से पूछा- ये जेएनयू क्या है? जेएनयू को लांछित किये जाने के इस दौर में जब उसे ‘जेएनयू यानी जेहादी नक्सली यूनिवर्सिटी’ जैसे जहरीले विशेषणों से नवाजा जा रहा है, ये प्रश्न भी एक हकीकत है.
एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा यह समझ पाने में नाकाम है कि आखिर जेएनयू पर इतनी बात क्यूं हो रही है. जो विश्वविद्यालयों के बारे में नहीं जानते, वे घृणा अभियान के संचालकों के नजरिये से यही समझ रहे हैं कि ये कुछ बिगडैल लड़के-लड़कियों और वैसे ही शिक्षकों का विश्वविद्यालय है. जो जेएनयू को लांछित करने का अभियान चलाये हुए हैं, विश्वविद्यालयों के बारे में उनकी अपनी समझ सीमित है. इसलिए जेएनयू उनके लिए अंधों का हाथी हो गया है. उसे दानवी सिद्ध करने के लिए नित नए किस्से गढ़े जा रहे हैं.
देशद्रोहियों का अड्डा, टैक्स पेयरों के पैसे उड़ाने वालों की छवि गढ़ते इन किस्सों से इतर जेएनयू का शानदार अकादमिक और राजनीतिक अतीत व वर्तमान है. यह इस दानवीकरण करने के दौर में जानबूझ कर अनदेखा करने और भुलाने की कोशिश की जा रही है.
जेएनयू में राजनीतिक सक्रियता, विचारों का खुलापन और अधिकतम लोकतांत्रिक स्पेस एक ऐसी विशेषता है, जो दुनिया के हमारे सबसे बड़े लोकतंत्र में अन्यत्र लगभग दुर्लभ ही है. विश्वविद्यालय के अधिकारियों के विरुद्ध आन्दोलन करते हुए भी लोकतांत्रिक चेतना वहां छात्र संगठनों की दृष्टि से ओझल नहीं होती.
पिछले दशक में छात्र आन्दोलन के एक किस्से से इसे बेहतर समझा जा सकता है. हुआ यूं कि जेएनयू के छात्र-छात्रायें विश्वविद्यालय के प्रशासनिक भवन के सामने अपनी विभिन्न मांगों को लेकर धरना दे रहे थे. इसी बीच विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार अपनी कार से प्रशासनिक भवन पहुंचे. छात्र-छात्राओं ने रजिस्ट्रार की कार को घेर लिया. घंटे भर के आसपास यह घेराव चला. कोई उदंडता नहीं, कोई अराजकता नहीं. बाद में आन्दोलन के सन्दर्भ में चर्चा करने के लिए आयोजित विभिन्न छात्र संगठनों की बैठक में इस घेराव पर बात हुई.
सोचिए रजिस्ट्रार या कोई अन्य अधिकारी देश में किसी और आन्दोलनकारी भीड़ के बीच फंस जाए तो उसके साथ क्या सुलूक होगा? ऐसी हालात में आम दृश्य यह होगा कि भीड़ के बीच फंसने वाले अधिकारी को भीड़ खींच कर बाहर निकालेगी, दौड़ा कर पीटेगी और कार तोड़-फोड़ दी जायेगी या आग के हवाले कर दी जायेगी. वहां कुछ न होना जेएनयू की लोकतान्त्रिक समझ से ही मुमकिन होता है.
प्रधानमन्त्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने बयान दिया था कि अंग्रेजी राज ने देश को गुड गवर्नेंस सिखाया. इसके बाद जब वे जेएनयू गए तो उन्हें वहां आइसा ने काला झंडा दिखाया. इस घटना के बाद आइसा के नेता से उक्त घटना पर एक प्रोफेसर साहिबा ने तीखी नारजगी जाहिर की. उक्त प्रोफेसर साहिबा की पार्टी उस समय केंद्र सरकार की समर्थक थी. उक्त प्रोफेसर साहिबा ने क्या कहा, सुनिए- “तुम अपने आप को समझते क्या हो? क्या प्रधानमंत्री इस देश का नागरिक नहीं है? क्या उसे भाषण देने का अधिकार नहीं है?”
आजकल देश में कोई यह कहने की हिमाकत कर सकता है कि प्रधानमन्त्री साधारण नागरिक हैं? प्रधानमन्त्री तो देव तुल्य हैं, जिनके खिलाफ कोई बोल तो क्या, सोच भी नहीं सकता है. जेएनयू का जो जनवाद है, उसमें प्रधानमंत्री, शहंशाह या देवता के पद पर आरूढ़ नहीं है. बल्कि उनके पक्ष में खडी प्रोफेसर साहिबा भी कहती हैं कि इस देश के आम नागरिक की हैसियत से प्राप्त अभिव्यक्ति के उनके अधिकार को बाधित नहीं किया जाना चाहिए. यह जनवाद आसमान से नहीं उतरा है. निरंतर वैचारिक संघर्ष से ही जेएनयू में कायम हुआ है.
जेएनयू का छात्रसंघ चुनाव भी उसकी विशिष्टता है. यहां छात्रसंघ का चुनाव विश्वविद्यालय का प्रशासन नहीं बल्कि बेहद लोकतांत्रिक तरीके से छात्र-छात्राओं के बीच से चुना गया चुनाव आयोग करवाता है. यह ऐसा चुनाव है जिसमे धनबल और बहुबल का लेशमात्र भी इस्तेमाल नहीं होता. चुनाव लड़ने वालों के फोर कलर पोस्टरों का नामोनिशान इस चुनाव में नहीं दिखता. ”डायनामाईट, डायनामाईट, फलाना भाई भाई डायनामाईट”, ”चाय-समोसा-लॉलीपॉप, फलाना भाई सबसे टॉप” जैसे नारे लगाते हुए, हुडदंगी जुलूस निकालने के बारे में वहां कोई सोचता तक नहीं है.
फोटोस्टेट से निकाले गए पर्चों के अतिरिक्त बाकी सारी प्रचार सामग्री, हाथों से बनायी जाती है. यह इतना साफ़-सुथरा,स्वतंत्र चुनाव होता है कि हमारी संसदीय प्रणाली के चुनाव संचालकों की कल्पना से बाहर की बात है. इस धन और हुल्लड़ रहित चुनाव प्रणाली का ही नतीजा है कि बेहद गरीब दलित, पिछड़े, आदिवासी पृष्ठभूमि के छात्र-छात्राएं निरंतर अपनी वैचारिक प्रखरता के दम पर छात्रसंघ के विभिन्न पदों पर विजयी होते हैं.
देश के मुट्ठीभर विश्वविद्यालयों में ही अब छात्रसंघ चुनाव होते हैं. उनमें जेएनयू अपवाद ही है, जिसमें आंगनबाड़ी सेविका का बेटा, फेरी लगाकर चूड़ी बेचने वाले का बेटा या खेत मजदूर की बेटी छात्रसंघ के मुख्य पदों पर पहुंच जाए. गरीबों, पिछड़ों, दलितों के बेटे-बेटियां सस्ते में पढ़ कर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीति बतियाएं, अभिजात्यपन से लबरेज सवर्णवादी मानस को यह भी अखरता होगा.
क्षेत्रवाद की राजनीति वाले देश में जेएनयू वह जगह है, जहां अमेरिका से आया हुआ टाइलर वॉकर विलियम्स उपाध्यक्ष हो जाता है या सूडान का खालिद अब्दुल्ला छात्रसंघ में चुना जाता है. सिर्फ छात्रों के प्रवेश लेने के मामले में ही नहीं छात्रसंघ में उनके प्रतिनिधित्व के मामले में भी जेएनयू ‘विश्व’ का ‘विद्यालय’ है.
इस वक्त जेएनयू को देशद्रोहियों का अड्डा सिद्ध करने की होड़ है और उसे अधिकतम गालिया दे देने भर से भी लोग देशभक्त सिद्ध हो जा रहे हैं. ऐसे समय में यह याद करना समीचीन होगा कि वह जेएनयू में वामपंथी छात्र संगठन आइसा की अगुवाई वाला छात्र संघ था, जिसने विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए जेएनयू के दरवाजे बंद करने के लिए किंचित लम्बा किन्तु सफल अभियान चलाया.
2003-04 में इस संघर्ष का नतीजा था कि बहुराष्ट्रीय कंपनी नेस्ले का आउटलेट जेएनयू में नहीं खुल सका और इसके बदले स्थानीय विकल्प को तरजीह दी गयी. पर जो देश के जल-जंगल-जमीन को मल्टीनेशनल कंपनियों को थाल में सजा कर देना चाहते हैं, उन्हें यह देशप्रेम न तो नजर ता है न रास आता है. या फिर जिन्होंने देशप्रेम को क्रिकेट मैच, नारों और गाली-गलौच तक महदूद कर दिया है, उन्हें इसमें देश के प्रति किसी तरह का प्रेम नजर भी आएगा, इसमें संदेह है.
राजनीति हमारे देश में ठेकेदारों और धंधेबाजों की शरणस्थली हो गयी है. छात्र राजनीति भी इससे अछूती नहीं है. यह दृश्य आम तौर पर देख सकते हैं कहीं कोई निर्माण कार्य हो रहा हो और छात्र नेता ठेकेदार से वसूली करने पहुंच हुए हों.
लेकिन जब जेएनयू में निर्माण कार्य होता है तो वहां की छात्र राजनीति क्या करती है? वहां छात्र नेता ठेकेदार के पास नहीं पहुंचते बल्कि उनकी निगाह मजदूरों पर जाती है. वे सुनिश्चित करते हैं कि मजदूरों की मजदूरी कानूनी मानकों पर मिल रही है या नहीं. वे श्रम कानूनों का सवाल उठाते हैं. मजदूरों को वाजिब मजदूरी मिलने तक छात्र आन्दोलन चलाते हैं.
जेएनयू से ढेरों-ढेर अकादमिशियन, साहित्यकार, पत्रकार, आईएएस, आईपीएस तो निकले ही साथ में ढेर सारे राजनेता भी हुए. विशिष्ट बात यह भी है कि चंद्रशेखर जैसे छात्र नेता भी जेएनयू से निकले. चंद्रशेखर जो दो बार जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष हुए और फिर अपनी जन्मस्थली सीवान (बिहार) लौट गए. खेत-खलिहान में खटते किसान-मजदूरों के संघर्ष में शामिल होने.
अपराधी राजनीति के इस समय में वे क्रांति का झंडा थामे जा टकराए. 31 मार्च 1997 को सीवान के जेपी चौक पर बाहुबली सांसद शाहबुद्दीन के भाड़े के हत्यारों ने उनकी हत्या कर दी. जेएनयू संघर्ष की इस चेतना का भी पोषक है, जो पीड़ित जनता के लिए अपराधी राजनीति से टकराने और सीने पर गोली खाने से भी नहीं चूकती.
यह सबको तय करना है कि हमें “शट डाउन जे.एन.यू.” चलाने की जरूरत है या देश में कई-कई और जेएनयू बनाने की? ऐसे जेएनयू जो ज्ञान के गढ़ हों, संघर्ष की चेतना और जनता के हितों के पोषक हों.
(इस लेख के लेखक इंद्रेश मैखुरी, भाकपा (माले) उत्तराखण्ड राज्य कमेटी के सदस्य हैं)