जीतन राम मांझी का प्रस्थान और बिहार की राजनीति में दबे-कुचले लोगों की दावेदारी का एजेंडा

मुख्यमंत्री पद का स्वघोषित ‘परित्याग’ करने के नौ महीने बाद, नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री के बतौर अपना ‘पुन: राज्याभिषेक’ करा लिया है. नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी के बीच होने वाली बहुप्रतीक्षित निर्णायक मुठभेड़ अंततः टांय-टांय-फिस्स हो गई क्योंकि मांझी ने विधानसभा के सदन में पूर्वनियत शक्ति-परीक्षण से बस जरा सा पहले अपना त्यागपत्र राज्यपाल को सौंप दिया. भाजपा द्वारा दिया गया समर्थन अंततः बिना भंजाया चेक बनकर रह गया, जिसके भविष्य में काम आने की संभावना एक खुला सवाल बनी हुई है. नीतीश कुमार को अपना बहुमत सिद्ध करने के लिये मार्च के मध्य तक का मौका मिला है.
नीतीश कहते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू की शर्मनाक पराजय के बाद पदत्याग करने और जीतन राम मांझी को सत्ता की बागडोर सौंपने का उनका फैसला ‘भावुकता में बहकर’ किया गया था. नीतीश कुमार इस कदर हिसाबी और परिणामवादी किस्म के इन्सान हैं, कि उनको ‘भावुकतावश’ फैसले लेने वाला व्यक्ति तो नहीं माना जाता. निश्चय ही जीतन राम मांझी को थोड़े-से समय के लिये फौरी तौर पर बिहार का मुख्यमंत्री बनाने का उनका फैसला ‘भावुकता’ का भाव-प्रदर्शन नहीं था. वह एक तीर से कई शिकार करने के मकसद से उठाया गया चालाकी भरा राजनीतिक कदम था.
जीतन राम माझी को मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी और सरकार को लोकसभा चुनाव में खाई भारी शिकस्त के फौरी असर से बचा लिया था. उन्होंने खुद को एक ऐसे नेता के बतौर पेश किया जो पराजय की जिम्मेवारी उठाने को तैयार है. और सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि वे यह संदेश देना चाहते थे कि अपनी सरकार द्वारा शुरू किये गये महादलित विमर्श के प्रति वे खुद पूरी तरह से गंभीर हैं – उनकी उम्मीद थी कि उन्हें सर्वाधिक उत्पीडि़त और दबे-कुचले समुदाय मुशहर जाति से आने वाले एक नेता के लिये अपने सत्ता के पद की ‘कुर्बानी’ देने का सारा श्रेय मिल जायेगा.
लेकिन जब जीतन राम मांझी ने खुद को हासिल नये प्राधिकार की लगातार दावेदारी करते हुए और स्पष्ट तौर पर नीतीश कुमार के साये से बाहर निकलते हुए नीतीश कुमार के हिसाब का इम्तहान लेना शुरू किया, तो नीतीश कुमार को खतरा सताने लगा. भाजपा को, जिसने आदतन बिहार में महादलितों के प्रत्येक जनसंहार को संरक्षण दिया है और उसकी पैरवी की है, जीतन राम मांझी के प्रतीकवाद में विराट राजनीतिक श्रेष्ठता नजर आने लगी और वह नीतीश को खुद उनके द्वारा शुरू किये गये खेल में मात देने को कमर कसकर उतर पड़ी. लेकिन किसी अन्य कारक से ज्यादा प्रभावी चीज थी दिल्ली के चुनाव का परिणाम, जिसने भाजपा के सामने कोई रास्ता नहीं छोड़ा और बिहार के राजनीतिक ड्रामे के चरम बिंदु पर पहुंचकर नतीजा फुस्स हो जाने की गारंटी कर दी.
जीतन राम मांझी पुराने कांग्रेसी स्कूल के राजनीतिज्ञ हैं जिन्होंने बाद में जनता दल का दामन थाम लिया था. वे बिहार की गया-जहानाबाद पट्टी से आते हैं जहां 1980 और 1990 के दशकों के समूचे दौर में ग्रामीण गरीबों के नृशंस जनसंहारों को अंजाम दिया गया है. मांझी ने इस उथल-पुथल भरे दौर में कभी भी दबे-कुचले लोगों के सम्मान, अधिकार और जान-माल के पक्ष में आवाज नहीं उठाई. कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं के बिल्कुल विपरीत, और जगजीवन राम व राम विलास पासवान की राजनीतिक परंपरा निभाते हुए, हकीकत में उन्होंने कभी सामाजिक मर्यादा और मुक्ति के लिये दबे-कुचले लोगों की लड़ाई के साथ कोई सहानुभूति नहीं जताई.
मुख्यमंतत्री के बतौर उनके पास मौका था कि वे दबे-कुचले लोगों के बुनियादी एजेंडा पर ध्यान देते. भाकपा-माले का एक प्रतिनिधिमंडल उनसे मिला था और उनसे जनसंहार के उन तमाम मुकदमों को, जिनमें हाइकोर्ट ने सभी अपराधियों को बरी कर दिया था, फिर से खोलने की मांग की थी. साथ ही प्रतिनिधिमंडल ने भंग किये गये अमीर दास कमीशन को पुनर्बहाल करने की भी मांग की थी क्योंकि इस कमीशन को भंग करने से रणवीर सेना का मनोबल बढ़ गया था और उसने दलित-विरोधी, महिला-विरोधी हिंसा के अभियान को फिर से शुरू कर दिया था. यह भी मांग की गई कि भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को तुरंत लागू करने के कदम उठाये जायं. लेकिन मांझी ने न्याय के इन बुनियादी मुद्दों के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, इसके विपरीत उन्होंने सामाजिक अन्याय एवं उत्पीड़न के सबसे बड़े संरक्षक भाजपा से ही सांठगांठ करनी शुरू कर दी.
क्या अब मांझी जनता परिवार में वापस लौटने के लिये नीतीश कुमार से समझौते की कोशिश करेंगे या फिर वे भाजपा के साथ गठजोड़ बांधने के लिये राम विलास पासवान के पदचिन्हों पर चलेंगे और एक नई पार्टी बनायेंगे? शुरूआती संकेत इस बात के हैं कि वे अपने सामने विकल्प खुला रखना चाहते हैं. आइये, हम यह अनुमान लगाना मांझी के जिम्मे छोड़ दें, क्योंकि सिर्फ वही अपने भावी राजनीतिक रास्ते को तय कर सकते हैं. सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात है इस नये राजनीतिक मोड़ पर जनता के अध्किारों, न्याय और सम्मान के एजेंडा की दावेदारी पेश करना. नीतीश कुमार को जनता से विश्वासघात करने के लिये अवश्य ही जिम्मेवार ठहराया जाना चाहिये, क्योंकि जनता ने उनके द्वारा किये गये विकास और सुशासन के वादों को देखते हुए उन पर भरोसा जाहिर किया था.
अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में मांझी सरकार ने बिहार के मजदूरों और कर्मचारियों के सबसे वंचित और उपेक्षित तबकों की बड़े अरसे से लम्बित पड़ी कुछेक मांगों को पूरा करने के लिये कई फैसले लिये थे. इन तमाम फैसलों का सम्मान करने और उन्हें लागू करने के लिये नीतीश कुमार पर दबाव बढ़ाना होगा. हाल की घटनाओं ने इस तथ्य को पर्याप्त रूप से स्पष्ट कर दिया है कि चाहे जनता दल हो या भाजपा, दोनों मांझी को केवल मुहरे के बतौर इस्तेमाल करने में दिलचस्पी रखते हैं, और मांझी के अपने समुदाय की असली समस्याओं का जिक्र उनकी कथनी या करनी में कहीं नजर नहीं आता. इस मोड़ पर दबे-कुचले लोगों की राजनीतिक दावेदारी के असली वाहक के बतौर वर्ग संघर्ष की कम्युनिस्ट पताका को बुलंद रखना होगा.

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