दिल्ली ने मोदी को दिया पहला बड़ा झटका

लोकसभा चुनाव में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की जबर्दस्त जीत के महज नौ महीनेे बाद ही दिल्ली के विधानसभा चुनाव में दिल्ली ने भाजपा को बड़ी भारी पराजय झेलने पर मजबूर कर दिया है. मई 2014 में हुए चुनाव में भाजपा ने दिल्ली की सभी सातों लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी, जिसमें दिल्ली के 70 में से 60 विधानसभा क्षेत्रों में उसे बढ़त हासिल हुई थी. फरवरी 2015 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणामों ने स्थिति को चमत्कारिक ढंग से उलट दिया है, और इस बार भाजपा महज तीन सीटों तक सिमट कर रह गई, जबकि आम आदमी पार्टी (‘आप’) को दिल्ली में पचास प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हैं और इतनी बड़ी तादाद में सीटें मिली हैं कि वे कुल सीटों के 95 प्रतिशत से भी अधिक हैं.

दिल्ली के जनादेश को उसकी अभूतपूर्व प्रबलता और धारदार स्पष्टता के चलते अतिविशिष्ट माना जा रहा है. निस्संदेह, इस जनादेश को बुनियादी तौर पर दिल्ली के विशिष्ट परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिये, जहां ‘आप’ ने, अरविंद केजरीवाल द्वारा नाटकीय ढंग से मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिये जाने से पहले, अपने 49 दिनों के अल्पकालीन शासन में ही जनता के बीच लोकप्रियता हासिल कर ली थी. इस बार दिल्ली ने दोनों हाथ खोलकर ‘आप’ को जितना ज्यादा से ज्यादा संभव हो सका, मजबूत जनादेश और अपने वादों को यथार्थ में बदलने का पूरा मौका दे दिया है. दिल्ली के शहरी गरीबों और हर वंचित मुहल्ले ने आप के पक्ष में डटकर मतदान किया है, और उसी तरह दिल्ली के मध्यवर्ग के बड़े हिस्से ने भी ‘आप’ को ज्यादा-से-ज्यादा वोट दिये हैं.
भाजपा को जरूर ऐसी स्थिति आने का अंदाजा पहले ही लग गया होगा, और इसीलिये उसने अपने पास जितने भी संसाधन थे, सबको इस चुनाव में झोंक दिया था. मोदी ने अपनी सरकार की पूरी ताकत लगाकर, खुद अगली कतार में रहकर चुनाव अभियान का नेतृत्व किया. अमित शाह ने अपनी वोट खींचने की चतुराई वाली सारी तरकीबों का इस्तेमाल किया और अपने बहुचर्चित नेटवर्क को पूरी तरह से काम पर लगाया. लेकिन यह एक ऐसा चुनाव था जिसमें भाजपा की लगभग हर चाल का उल्टा नतीजा निकला और उसने भाजपा की इस चमत्कारिक पराजय में ही योगदान किया. और मोदी सरकार के लिये तथा खुद मोदी के प्रभामंडल के लिये इसे ‘प्रतिष्ठा की बड़ी लड़ाई’ बनाने के बाद अब कोई रास्ता नहीं बचा जिससे भाजपा इस पराजय को तुच्छ बता सके और इसका ठीकरा चंद स्थानीय कारकों के मत्थे फोड़ सके.

दिल्ली के चुनाव से दो बिल्कुल स्पष्ट संदेश निकल रहे हैं जिनकी अनुगूंज आने वाले दिनों में दिल्ली की सीमाओं से बाहर भी सुनी जायेगी. दिल्ली के शहरी गरीबों और मेहनतकश जनता और नौजवानों की यह दावेदारी, कारपोरेट लूट और बड़े पैमाने पर जनता को वंचना का शिकार बनाने तथा उनके अधिकार छीनने के खिलाफ चल रही लड़ाई के लिये एक मददगार परिघटना है. विभिन्न पार्टियों के मतदाताओं के ‘आप’ की ओर चले जाने के बारे में बातें करने के बजाय, हमें जनता की इस निर्णायक दावेदारी को मंजूर करना होगा और उसका सम्मान करना होगा. चुनाव परिणाम के संदेश का दूसरा विशिष्ट पहलू है इसके जरिये भाजपा द्वारा छेड़े गये साम्प्रदायिक एजेंडा को, और मोदी शासन की बढ़ती निरंकुश फरमानशाही का स्पष्टतः मुंहतोड़ जवाब दिया जाना.

इसके साथ ही चुनाव परिणाम में ‘आप’ मॉडल की राजनीति के लिये भी एक गहरा संदेश निहित है. भाजपा ने ‘आप’ की साख गिराने और उसे ऐसी पार्टी के बतौर चिन्हित करने की कोशिश की थी जो अराजकतावाद की पैरवी करती है और उस पर अमल भी करती है. आप की सुस्पष्ट विजय इस बात को स्पष्ट रूप से दिखा देती है कि दिल्ली की जनता ने ऐसा नहीं माना था. लोग अरविंद केजरीवाल द्वारा पदत्याग किये जाने के गलत फैसले पर जरूर निराश और क्रोधित थे, लेकिन ‘आप’ द्वारा शासन और आंदोलन को मिलाते हुए एक नई राह तैयार करने और ‘राजनीतिक प्रतिष्ठान की वीआईपी संस्कृति’ के आभूषणों का परित्याग करने के प्रयास को जनता का तब तक समर्थन मिलता रहेगा जब तक ‘आप’ अपने बुनियादी वादों के प्रति सच्चा बना रहेगा.

‘आप’ का राजनीतिक क्रमविकास दिल्ली की सीमाओं से कहीं परे भी रुचि और आकर्षण पैदा करने वाला विषय बना रहेगा. दिसम्बर 2013 में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव में पहली बार हिस्सा लेने पर ही उसे भारी शुरूआती सफलता मिली थी, जिसकी लहरों पर सवार होकर ‘आप’ ने 2014 के लोकसभा चुनाव में अपना जाल दूर-दूर तक फैला देने का प्रयास किया था, जबकि खुद केजरीवाल वाराणसी में मोदी के खिलाफ उम्मीदवार बने. केजरीवाल ने वापस लौटकर इस्तीफा देने के मामले में माफी मांगी और ‘आप’ ने लगभग शुद्ध रूप से दिल्ली-आधारित दृष्टिकोण ग्रहण कर लिया, जिसमें उन्होंने और अपने सारे संसाधनों एवं ऊर्जा को दिल्ली पर केन्द्रित कर दिया. अब यह देखना बाकी है कि आप दिल्ली में शासक पार्टी की भूमिका के साथ अपनी राजनीतिक उपस्थिति का विस्तार करने तथा राष्ट्रीय धरातल पर अपनी भूमिका को बढ़ाने का तालमेल बैठाने के लिये कैसे प्रयास करती है.

मतदान के बाद किया गया दिल्ली के वोटों का विश्लेषण यह साफ बताता है कि ‘आप’ को मिले वोटों का सबसे बड़ा हिस्सा दिल्ली के शहरी गरीबों और वंचनाग्रस्त इलाकों से और दलितों एवं अल्पसंख्यकों से आया है, जो परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ रहे हैं. कुछेक प्रेक्षक एवं कार्यकर्ता स्वभावतः ‘आप’ के उत्थान को ‘वर्ग-युद्ध’ के लक्षण के बतौर देखने को लालायित होंगे, लेकिन याद रखना होगा कि ‘आप’ खुद ही अपनी राजनीति की व्याख्या ‘वर्ग संघर्ष के बिना वर्गीय राजनीति’ के बतौर करता है और केजरीवाल ने आर्थिक दर्शन की जो रूपरेखा खींची है वह पूरी तरह से नव-उदारवाद के मुक्त बाजार पर जोर की पूरी तरह हिमायत करती है, जबकि इसके जरिये अनिवार्यतः जिस भ्रष्टाचार का जन्म होता है, उसको नापसंद करती है.
एक राजनीतिक संगठन के बतौर ‘आप’ का चाहे जैसे भी क्रमविकास हो, दिल्ली का जनादेश निश्चित रूप से नरेन्द्र मोदी शासन की रहनुमाई में चलाये जा रहे कारपोरेट-साम्प्रदायिक हमले के खिलाफ जारी लड़ाई में देश भर की जनता के लिये जरूर प्रेरणा का स्रोत बनेगा. अगर 2014 के चुनावों के नतीजे भाजपा के पक्ष में रहे, तो 2015 की शुरूआत इससे बिल्कुल भिन्न दिशा में हुई है. वक्त आ गया है कि प्रतिरोध और परिवर्तन की आवाजें भारत के कोने-कोने में और जोरदार ढंग से, और भी स्पष्ट रूप से प्रतिध्वनित हों.

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