श्रीनगर (गढ़वाल) स्थित हेमवती नंदन बहुगुणा – गढ़वाल विश्वविद्यालय का मुख्य परिसर – अचानक ढोल और अन्य स्थानीय वाद्य यंत्रों की गमक से गूँज उठता है। अपने पारम्पारिक परिधानों में सजे नर्तक स्त्री-पुरुषों को घेर कर छात्र-छात्राएं खड़े हो जाते हैं। यह लोकनृत्य परिसर में मौजूद सभी को तरंगित करता है। ये सीमान्त जोशीमठ से आये भोटिया सांस्कृतिक क्लब के कलाकार थे। मौका था, उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में जन संस्कृति मंच के प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के अंतर्गत आयोजित पहला फिल्म महोत्सव. यह 26-27 सितम्बर 2015 को आयोजित हुआ। पारंपरिक वाद्यों और नृत्य को देख कर तरंगित होने वाले छात्र-छात्राएं सैकड़ों की तादाद में फिल्म महोत्सव के उद्घाटन सत्र में भी भागीदार हुए। गढ़वाल विश्वविद्यालय के ए. सी. एल. हाल में आयोजित पहले गढ़वाल फिल्म महोत्सव के उद्घाटन सत्र में सभागार खचाखच भरा हुआ था।
उद्घाटन सत्र को मुख्य वक्ता के रूप में संबोधित करते हुए आलोचक डा. आशुतोष कुमार ने कहा कि गढ़वाल की धरती प्रतिरोध की धरती है ओर वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली प्रतिरोध के राष्ट्रीय नायक हैं क्योंकि उन्होंने दमनकारी सत्ता के विरूद्ध निर्दोष जनता पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया था। उन्होंने कहा कि सत्ता का चरित्र दमनकारी होता है और आज हमारे देश के लोकतंत्र में फासीवादी विचारों का जहरबाद, आजादी के आंदोलन से लेकर आज के दौर के सभी स्तरों पर लूट-झूठ और फूट की संस्कृति के हवाले कर देना चाहता है। साथ ही लोगो को मूर्ख बनाया जा रहा है, ठीक हिटलर के प्रचार अभियान के तर्ज पर ताकि जनता प्रतिरोध की चेतना के साथ संघर्ष न कर पाए। आशुतोष कुमार ने सिनेमा के संदर्भ में कहा कि खराब फिल्मों से नहीं अच्छी कही जाने वाली फिल्मे से आज अधिक खतरा है क्योंकि वे प्रतिरोध की चेतना को संकुचित कर पेश कर रही हैं। उद्घाटन सामरोह को गढ़वाल विश्वविद्यालय की उप अधिष्ठाता छात्र कल्याण प्रो. सुरेखा डंगवाल, जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सचिव मनोज सिंह, प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के संयोजक संजय जोशी, जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य अशोक चौधरी आदि ने संबोधित किया। स्वागत भाषण गढ़वाल विश्वविद्यालय में गणित के आचार्य प्रो. आर. सी. डिमरी ने दिया और धन्यवाद ज्ञापन जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय पार्षद मदन मोहन चमोली ने किया। उद्घाटन सत्र का संचालन फिल्म महोत्सव के स्थानीय संयोजक योगेन्द्र कांडपाल ने किया।
गढ़वाल का यह पहला फिलोत्सव श्रीनगर (गढ़वाल) से प्रकाशित पत्रिका “रीजनल रिपोर्टर” के संस्थापक सम्पादक भवानी शंकर थपलियाल और प्रो. एम. एम. कलबुर्गी को समर्पित था। भवानी शंकर थपलियाल का इसी वर्ष फरवरी में अल्पायु में देहावसान हुआ। वे प्रगतिशील मूल्यों और उसूली पत्रकारिता के लिए समर्पित थे। प्रख्यात विद्वान और हम्पी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. कलबुर्गी कट्टरपंथ से अपनी लेखनी से लड़ रहे थे और उनके लेखन से घबराए कट्टरपंथी तत्वों ने उनकी हत्या कर दी।
फिल्म महोत्सव की सबसे पहले लघु फिल्म -गाँव छोड़ब नाही- दिखाई गई। अपने गाँव, जमीन, जंगल पर अधिकार के दावे को निर्देशक के पी ससी का यह संगीतमय वीडियो प्रस्तुत करता है। एफ. टी. आई. आई. के छात्र-आन्दोलन के समर्थन में संभाजी भगत द्वारा गाये गये गीत -ये हिटलर के साथी- प्रदर्शित किया गया। इस संगीतमय वीडिओ में एफ. टी. आई. आई. के आन्दोलन के बहाने वर्तमान राजनीतिक हालात पर तीखी टिपण्णी है। फिल्म महोत्सव की तीसरी प्रस्तुति बीजू टोप्पो और मेघनाथ द्वारा निर्देशित लघु फिल्म- गाडी लोहरदगा मेल थी।
इस बीच देश में आरक्षण के खिलाफ बेहद आक्रामक बहस चलाई जा रही है। लेकिन एक तबका है, जिसकी नारकीय जीवन स्थितियों पर किसी की निगाह नहीं जाती। इनका जीवन गंदगी में डूबा रहता है ताकि “स्मार्ट” होते शहर स्मार्ट दिखते रहे। ये तबका है, सफाई कर्मचारियों का, जिनका पूरा जीवन औरों द्वारा की गयी गंदगी को साफ़ करते-करते ही फ़ना हो जाता है। आरक्षण के खिलाफ बहस चलाने वालों को सफाई का काम एक जाति विशेष के लिए आरक्षित होने से कोई ऐतराज नहीं है। शायद उनकी निगाह भी इस ओर नहीं जाती। सफाई कर्मचारियों की दिल दहला देने वाली जीवन स्थितियों की शिनाख्त करती है, अतुल पेठे द्वारा निर्देशित फिल्म – कचरा व्यूह। गढ़वाल फिल्म महोत्सव में बाबा साहब डा भीम राव अम्बेडकर के 125वें वर्ष को समर्पित करते हुए यह विचारोत्तेजक फिल्म प्रस्तुत की गई।
सिनेमा सिर्फ अभिजनों का ही माध्यम नहीं है बल्कि आम जन की पीड़ा व संघर्ष की अभिव्यक्ति का माध्यम होने की क्षमता रखता है। ऐसे कई फिल्मकार हैं, जो सिर्फ मुनाफे के लिए फ़िल्में नहीं बना रहे हैं। बल्कि जल, जंगल, जमीन जैसे संसाधनों पर अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे आम लोगों के साथ, अपने कैमरे के साथ, फिल्मकार और एक्टिविस्ट दोनों ही रूप में शामिल हो रहे हैं। इन फिल्मकारों का ठेकेदारों की तिजोरी भरने वाले विकास के मॉडल पर तीखी नजर है और अपने मूवी कैमरे से वे विकास के इस मॉडल की कलई भी खोल रहे हैं। डाक्यूमेंट्री सिनेमा यानि दस्तावेजी सिनेमा अपने समय की नब्ज पर हाथ रखे हुए हर महत्वपूर्ण घटना को सचल दस्तावेज के रूप में दर्ज कर रहा है। सूर्य शंकर दाश ऐसे ही फिल्मकार हैं, जो ओडिशा में खनन विरोधी आन्दोलन के साथ फिल्मकार और एक्टिविस्ट दोनों के तौर पर जुड़े हुए हैं। ओडिशा के बहाने पूरे देश में चल रहे विकास के जनविरोधी मॉडल पर दृष्टिपात करती सुर्यशंकर दाश की लघु फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। स्वयं सूर्यशंकर दाश को भी महोत्सव में मौजूद रहना था, परन्तु आन्दोलन के मुकदमों के चलते, वे नहीं आ सके। उनकी फिल्मों का प्रस्तुतिकरण प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के संयोजक – संजय जोशी द्वारा किया गया।
साम्प्रदायिकता की जड़ें इस देश में अंग्रेजों ने रोपी और आजादी के साथ विभाजन के बीच ये जड़ें और मजबूत हुई। देश बंटवारे और उसके बाद के जहरीले साम्प्रदायिक माहौल में अकलियत के लोगों के लिए कठिन होती परिस्थियों की शिनाख्त करती फिल्म है, एम. एस. सथ्यू की “गर्म हवा”। इस समय पूरे देश में सत्ता के दंभ के साथ साम्प्रदायिक उन्मादी दनदनाते घूम रहे हैं, कत्लेआम अंजाम दे रहे हैं। ऐसे में यह फिल्म एक जरुरी फिल्म हो जाती है। बलराज साहनी के सधे हुए अभिनय से सजी यह फिल्म, साम्प्रदायिक घृणा से पलायन को नहीं, इन्कलाब के रास्ते को ही साम्प्रदायिकता की जहरीली हवा से लड़ने के समाधान के तौर पर तजवीज करती है।
गढ़वाल फिल्म महोत्सव के दूसरे दिन की शुरुआत अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा की कालजयी फिल्म – द ग्रेट डिक्टेटर – से हुई। यह चार्ली चैपलिन की एकमात्र सवाक फिल्म है। इस फिल्म में अपने धारधार व्यंग्य से चैपलिन ने हिटलर के समूचे तानाशाही व्यक्तित्व और विचार की चिंदी-चिंदी उड़ा कर रख दी थी। इस फिल्म का अंतिम संवाद तो बेहद काव्यात्मक और जकड़नों से मुक्ति की घोषणा का आह्वान जैसा है। अपने हाव-भाव-अदा-अंदाज पर मुग्ध किसी भी तानशाह का अक्स – द ग्रेट डिक्टेटर में देखा जा सकता है, अपने देश के भी.
गढ़वाली सिनेमा की विकास यात्रा पर गढ़वाल विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर और उत्तराखंड के ख्यातिप्राप्त संस्कृतिकर्मी प्रो. डी. आर. पुरोहित और डा. सुजीत कंडारी द्वारा प्रस्तुतिकरण किया गया। इसमें गढ़वाली फिल्मों के निर्माण के अलग-अलग दौरों और उस समय में बनी फिल्मों पर विस्तृत जानकारी दी गयी। गढ़वाली सिनेमा पर चर्चा करते समय यह भी उल्लेख करना जरुरी है कि फिल्म महोत्सव में पहली गढ़वाली फिल्म -जग्वाल (प्रतीक्षा) दिखाए जाने का विचार भी था। 1982 में बनी “जग्वाल” गढ़वाली की पहली फीचर फिल्म थी। तकनीकी रूप से बहुत उत्कृष्ट न होने के बावजूद यह गढ़वाली सिनेमा को लेकर किया गया पहला गंभीर प्रयास था। पहाड़ के सवालों विशेष तौर पर पलायन के सवाल को इसमें संजीदा तरीके से उठाया गया था। यह विडम्बना ही कही जायेगी इसके बाद बनने वाली गढ़वाली फिल्मों ने जग्वाल की लीक पर चलने के बजाय मुम्बय्या लटके-झटकों और फॉर्मूलेबाजी पर चलने की राह चुनी। काफी प्रयासों के बावजूद पहली फिल्म मिल ही नहीं पायी। फिल्म की प्रति हासिल करने के लिए गढ़वाली फिल्मों में रूचि रखने वालों से दिल्ली-मुम्बई आदि नगरों में संपर्क किया गया। यहाँ तक कि कनाडा में रह रहे फिल्म के निर्माता पाराशर गौड़ से भी संपर्क किया गया पर निराशा ही हाथ लगी। दिल्ली में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार और गढ़वाली साहित्य, संस्कृति के अद्ध्येता मनु पंवार के जरिये फिल्म के निर्माता पाराशर गौड़ से संपर्क साधा गया। उन्होंने फिल्म का प्रिंट नीलम कैसेट कंपनी के पास होने की जानकारी दी। नीलम कैसेट कंपनी के प्रबंधकों ने कहा कि उनके पास फिल्म का प्रिंट था, वह दो-तीन साल पड़ा रहा और फिर नष्ट हो गया। गढ़वाली फिल्मों की विकास यात्रा में गहरी रूचि रखने वाले पत्रकार शैलेन्द्र सेमवाल “शैल” ने भी पहले गढ़वाल फिल्मोत्सव के लिए “जग्वाल” फिल्म उपलब्ध करवाने की काफी कोशिश की। परन्तु सफलता हाथ नहीं लगी। यह जरुर पता चला कि नीलम कैसेट कंपनी वालों के पास उपलब्ध प्रिंट के अलावा फिल्म का एक और प्रिंट है, जिसे रिकवर करने की कोशिश की जा रही है। पर इस सारी जद्दोजहद में गढ़वाली के पहली फिल्म “जग्वाल” के प्रदर्शन का विचार स्थगित ही करना पड़ा। जहाँ विश्व सिनेमा की सौ वर्ष से अधिक पुरानी फ़िल्में भी आसानी से उपलब्ध हैं, वहीं 1982 में बनी पहली गढ़वाली फिल्म का प्रिंट उपलब्ध न होना दुर्भाग्यपूर्ण तो है ही पर यह गढ़वाली सिनेमा की दशा को भी दर्शाता है कि वह अपने इतिहास के प्रति कितना अगंभीर है।
2013 में आई आपदा ने पूरे उत्तराखंड को हिला कर रख दिया था। आपदा की विभीषिका और सत्ता की बेरुखी ने उत्तराखंड को ऐसे घाव दिए, जो आज भी भर नही सके हैं। सत्ताधीशों ने आपदा को प्राकृति जनित ठहरा कर, अपनी जिम्मेदारी से हाथ झाड लिए। जबकि आपदा की विभीषिका को बढाने के लिए ठेकेदारपरस्त विकास का मॉडल जिम्मेदार है, जो सत्ताधीशों और धन्नासेठों की जेबें भरता है और आम जन के लिए त्रासदी लेकर आता है। इन सब मामलों की जांच पड़ताल करती डाक्यूमेंट्री फिल्म – देवीज डेलिमा गढ़वाल फिम महोत्सव में प्रदर्शित की गयी। बेंगलुरु के युवा निर्देशक निर्विकल्प ने अपनी इस फिल्म के जरिये आपदा, उसके पहले और बाद की हालात को देखते-परखते हुए, इस विभीषिका को तीव्रतर करने वाले कारकों को सामने लाने का प्रयास किया है।
बेहद चर्चित मराठी फिल्म – कोर्ट भी गढ़वाल फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित की गई। कोर्ट फिल्म न्याय प्रणाली की जटिलताओं को दर्शाती है। एक सफाई कर्मी की ह्त्या का आरोप एक जनगीत गाने वाले बुजुर्ग गायक पर लगाया जाता है। आरोप यह है कि इस गायक के जनगीत ने सफाई कर्मी को आत्महत्या करने के लिए उकसाया। फिल्म न्याय पाने के लिए इस बुजुर्ग जनगायक की जद्दोजहद और उसके जरिये न्याय प्रणाली पर तीखा व्यंग्य है। चैतन्य तम्हाणे द्वारा निर्देशित यह फिल्म अनेक अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में पुरुस्कृत फिल्म है और इस वर्ष भारत की ओर से ऑस्कर के लिए भी नामित हुई है।
फिल्मोत्सव में चर्चित फिल्म समीक्षक नेत्र सिंह रावत द्वारा निर्मित डॉक्यूमेंट्री फिल्म – माघ मेला का प्रदर्शन भी किया गया।
फिल्म महोत्सव के दौरान प्रख्यात चित्रकार बी. मोहन नेगी के कविता पोस्टर, योगेन्द्र कांडपाल के रेखा चित्रों और रुद्रप्रयाग के अशोक चौधरी का काष्ठ शिल्प आकर्षण का केंद्र थे। दिल्ली से आये चित्रकार अनुपम रॉय ने योगेश पाण्डेय को अपने साथ लेकर पूरे महोत्सव के दौरान कपडे और कागज पर पोस्टर बनाये और उनका प्रदर्शन किया। आयोजन स्थल पर ही चित्र रचना और उनका प्रदर्शन, दर्शकों के लिए भी एक अलग तरह का अनुभव था। फिल्म महोत्सव की स्मारिका जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय पार्षद मदन मोहन चमोली के सम्पादन में प्रकाशित हुई, जिसका विमोचन वरिष्ठ पत्रकार हरीश चंदोला और प्रख्यात रंगकर्मी जहूर आलम द्वारा किया गया। फिल्म महोत्सव भागीदारी के लिहाज से भी उल्लेखनीय रहा। गढ़वाल मंडल के सभी जिलों से संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार, एक्टिविस्ट फिल्म महोत्सव में शामिल हुए।